कदम-दर-कदम पर चर्चा के लिये पहले से प्राप्त ग़ज़लों में से एक ग़ज़ल बची हुई है इसकी घोषणा तो पिछली पोस्ट में कर ही दी थी। इस बार शाईर/शाईरा का नाम नहीं दिया जा रहा है जिससे चर्चा खुली हो। हॉं इतना जरूर कह सकता हूँ कि यह ग़ज़ल मेरी नहीं है न ही सर्वत साहब की। ग़ज़ल बह्र में भी लग रही है। मेरा अनुरोध है कि इसपर अपने विचार खुलकर रखें। जो प्रारंभिक 5 ग़ज़लें चर्चा के लिये प्राप्त हुई थीं वो इस के साथ समाप्त हो रही हैं।
अब आगे की व्यवस्था इस प्रकार निर्धारित की गयी है कि बह्र, रदीफ़, काफि़या पहले से दे दिया जायेगा इस छूट के साथ कि शाईर चाहें तो रदीफ़ और काफि़या बदल कर भी ग़ज़ल कह सकते हैं। ऐसा करने से चर्चा के लिये प्राप्त होने वाली गुणवत्ता में सुधार होगा ऐसी अपेक्षा है।
आपने स्वर्गीय दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल पढ़ी/सुनी होगी।
'मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ।
तू किसी रेल सी गुजरती है,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ।
एक बाज़ू उखड़ गया जबसे
और ज्यादह वज़न उठाता हूँ।'
इसकी बह्र है बह्रे-खफीफ मुसद्दस् मख्बून मक्तुअ या बह्रे-हजज मुसद्दस् अस्तर जिसके अरकान हैं
फ़ायलुन् फ़ायलुन् मफ़ाईलुन् या 212 212 1222
सीमित संपर्क दायरें में यह सूचना ई-मेल से पूर्व में ही दे दी गयी थी और उसपर कुछ ग़ज़लें प्राप्त भी हो चुकी हैं।
इस बह्र पर चर्चा के लिये कोई भी अपनी ग़ज़ल भेज सकता है जब तक आती रहेंगी चर्चा चलती रहेगी। कहने वाले को छूट रहेगी कि चाहे तो रदीफ़ काफि़या भी बदल सकते हैं लेकिन बह्र का पालन तो करना ही है।
अब इस बार की ग़ज़ल जिसपर चर्चा आमंत्रित है:
बह्र है; बह्रे रमल मुसम्मन् महजूफ
फायलातुन्, फायलातुन्, फायलातुन्, फायलुन् 2122 2122 2122 212
बढ़ रहे हैं फासिले इन्सान से इन्सान के
रह गये क्या मायने अब दीन-औ-ईमान के।
बेइमानों और झूठों की ही हर-सू धाक है
गीत गाता कौन सच्चे और इक गुणवान के।
गम मुझे कोई न दुनिया के रुला पाये कभी
दर्द जो तुमने दिये दुश्मन बने हैं जान के।
आशियाँ तो लुट गया इक बेवफा के हाथ में
कौन जाने दिन फिरेंगे या नहीं नादान के।
हाथ से अपने उजाड़ा हो किसी ने घर अगर
क्या बतायेगा किसी को हाल बीयाबान के।
चल दिया था जो किनारा कर घड़ी में दर्द की
आज वो है दर्द में तो क्या करें पहचान के।
वेद ग्रंथों मे पढा था एक है परमात्मा
देखिये तो रूप कितने हो गये भगवान के।
आज तक जो सीख सका उससे,, मुझे कुछ शेर मे मामूली बदलाव की जरूरत लगी
ReplyDeleteजो कह रहा हूँ वो सही है या नहीं ये तो गुणीजन ही बताएंगे
बेइमानों और झूठों की ही हर-सू धाक है
गीत गाता कौन सच्चे और इक गुणवान के।
"इक" शब्द भर्ती का लग रहा है
गम मुझे कोई न दुनिया के रुला पाये कभी
को यूँ कर लें तो
गम मुझे कोई न दुनिया का रुला पाया कभी
आशियाँ तो लुट गया इक बेवफा के हाथ में
कौन जाने दिन फिरेंगे या नहीं नादान के।
पहले मिसरे में "हाथ में" की जगह "साथ से"
दोनों मिसरे की बात भी अलग अलग लग रही है इस लिए मज़ा नहीं आ रहा है
मक्ता के दुसरे मिसरे में
देखिये तो
को
देखता हूँ
कर लिया जाए तो ?
@वीनस
ReplyDeleteबेइमानों और झूठों की ही हर-सू धाक है में एक समस्या और लग रही है 'ही' के तत्काल बाद हर का 'ह' सामीप्य दोष के कारण प्रवाह को रोकता सा है।
मक्ते में सुधार का सुझाव अच्छा है।
@वीनस
ReplyDeleteअन्य दो अशआर पर आपके सुझाव कितने कारगर होंगे यह इस पर निर्भर करेगा कि दृष्य क्या है।
यहाँ जरुरी चर्चा हुई है...
ReplyDeleteमेरे विचार में,
बेइमानों और झूठों की अब हर-सू धाक है
;
वेद ग्रंथों मे पढा था एक है परमात्मा
देखता हूँ रूप कितने हो गये भगवान के।
(इस शेर में अपना अनुभव कहा जा रहा है जो स्पष्ट है)
बेइमानों और झूठों की ही हर-सू धाक है
ReplyDeleteगीत गाता कौन सच्चे और इक गुणवान के।
पढते समय इस शेर का इक मुझ भी खटक रहा था, लेकिन जब सस्वर इसे पढ के देखा तो इक हटाने पर मात्राएं कम सी लगतीं हैं. सही और गलत तो गुणीजन ही बतायेंगे. बाकी शेर पढते समय तो नहीं खटक रहे.
"आशियाँ तो लुट गया इक बेवफा के हाथ में"
यहां "इक बेवफ़ा के नाम पे" करें तो?
बेइमानों और झूठों की ही हर-सू धाक है
ReplyDeleteइसकी जगह अगर हम ऐसे लिखे तो क्या वो गलत होगा -
'बेइमानों और झूठों की यहाँ पर धाक है'
@इंद्रनील
ReplyDeleteआपका सुझाव मुझे तो सटीक लगा।
बेइमानों और झूठों की यहाँ पर धाक है
पास अब आता नहीं कोई किसी गुणवान के।
कैसा रहेगा।
आशियाँ के शेर में अच्छे विकल्प आ रहे हैं, समापन चर्चा के लिये अच्छी सामग्री रहेगी।
तिलक जी, ये 'आशियाँ' वाला शेर को अगर हम इस तरह लिखते हैं तो कैसा रहेगा?
ReplyDeleteआशियाँ तो लुट चूका है बेवफाई से तेरे
कैसे अब टुकड़े जुड़ेंगे इस दिले नादान के
कुछ व्यस्त होने के कारण पूरा समय स्राजनशील नही हो पा रहा हूँ ... माफी चाहता हूँ तिलक जी .... नियमित होने का प्रयास करूँगा ...
ReplyDeleteअपन तो वही फिर से मूक दर्शक ...लेकिन यहाँ जो सिखने को मिलता है सच में कही नहीं ....शायर और फिर उसको दुरुस्त करते उस्ताद लोग ...दोनों ही श्रेष्ठ है !!!
ReplyDeleteअपने पास कुछ कहने को नहीं है बस पढने और सीखने को है ...मज़ा आ रहा है :)
@इंद्रनील
ReplyDeleteआपको थोड़ा ध्यान रखना होगा हिन्दी उच्चारण का वरना आप कहना कुछ चाहेंगे और समझा कुछ और ही जायेगा।
आपने शायद ये कहा है:
आशियाँ तो लुट चुका है बेवफाई से तेरी
कैसे अब टुकड़े जुड़ेंगे इस दिले नादान के।
दूसरी प्रक्ति में अगर यूँ कहें कि:
किस तरह टुकड़े जुड़ेंगे अब दिले नादान के - तो ठीक रहेगा।
इस शेर को और रोचक बनाया जा सकता है। सोचें कैसे।
Is gazal par kuch kahne ki meri bisaat nahi hai .........
ReplyDeleteis sher par to kurbaan jaayen .......
चल दिया था जो किनारा कर घड़ी में दर्द की
आज वो है दर्द में तो क्या करें पहचान के।
pukhta bahar hai ......
बेइमानों और झूठों की ही हर-सू धाक है
गीत गाता कौन सच्चे और इक गुणवान के।
ik padhne mein koi sakta nahi hai ......
magar
geet gaata koun sachche o guni insaan ke
bhi liya jaa sakta hai .....
अंतिम से पहले वाले शेर से बहुत insensitivity झलक रही है. अगर मेरी ग़ज़ल होती, तो मैं बदल देता. लेकिन खैर शायर को आज़ादी है अपनी बात कहने की.
ReplyDelete"चल दिया था जो किनारा कर घड़ी में दर्द की
आज वो है दर्द में तो क्या करें पहचान के"
मैं शायद ऐसे कहता.
"चल दिया था वो किनारा कर घडी में दर्द की,
क्या गिला होते कई चेहरे हैं हर इंसान के."
सर्वत साहब से मेल पर प्राप्त:
ReplyDeleteतीन शब्द-------- मायने--- मानी या मआनी होने चाहिएं. बेइमानी----- सिर्फ बेईमानी (२२२२) और बीयाबान --- केवल बियाबान होना चाहिए.
बहर की पाबंदी के लिए, गजल के नए विद्यार्थी प्राय: ऐसा कर लेते हैं. जरा किसी वरिष्ठ/महान रचनाकार के यहाँ ऐसी 'छूट' दिखाएं. बिना परिश्रम, त्याग, समर्पण के, गजल का शास्त्र किसी के हाथ लगने वाला नहीं. लिहाज़ा, छूट लेने की बजाए, शेर निष्कासित करने का साहस दिखाना होगा, किसी दूसरी बहर में जाकर उस चितन को बांधना पड़ेगा.
सबसे आवश्यक है अध्ययन, जिसके पास अध्ययन नहीं, वो लेखन बहुत दिन नहीं चलेगा.
मैं इस गजल के अशआर को संवारने का प्रयास कर रहा हूँ:
बढ़ रहे हैं फासले इंसान से इंसान के
अब मआनी ही कहाँ हैं धर्म के, ईमान के
झूट, बेईमानियों की चार सू अब धाक है
गीत गाए कौन सच्चे, नेकदिल, गुणवान के
दूसरों के छल से यह आँखें नहीं भीगीं मगर
दर्द जो तुम ने दिए, दुश्मन बने हैं जान के
आशियाना दिल का उसकी बेवफाई से लुटा
कौन जाने कब फिरेंगे दिन दिले- नादान के
जो तुम्हारे दर्द में शामिल नहीं था एक पल
फिर तुम उसके दर्द में शामिल हो क्यों पहचान के
वेद-ग्रन्थों में पढ़ा था, एक है परमात्मा
आज कितने रूप लेकिन हो गए भगवान के.
*** बियाबान वाला शेर छोड़ दिया है. रचनाकार यदि अन्य कोई काफिया लेकर शेर कहे तो उस पर वार्ता हो सकती है.
मैं भी इससे सहमत हूँ कि 'छूट' शब्द से दूर रहना चाहिये और शाइर को यह अनुमति तभी हो सकती है जब वह छूट की सीमा को समझता हो। मेरी बात शायद मज़ाक लगे लेकिन छूट की भी शास्त्रसम्मत सीमायें होती हैं।
ReplyDeleteखास तौर से रदीफ़ और काफिये में। कोशिश यह रहनी चाहिये कि जिन शब्दों का प्रयोग हो रहा है उनको शब्दकोष में देख अवश्य लिया जाये। स्थानीय शब्दरूपों का प्रयोग भी अत्यंत सावधानी से करना चाहिये।
२३ मई की पोस्ट. बीच में ब्लॉग स्वामी की अनुपस्थिति. वापसी के बाद २ दिन गुजर चुके.
ReplyDeleteरचनाकार का दूर-दूर तक पता नहीं. बाकी भाई-बन्धु भी जाने कहाँ छुपे बैठे हैं.
आसार बहुत अच्छे नजर नहीं आते.
मैं केवल आज तक हूँ, कल सुबह सवेरे आगरा के लिए प्रस्थान कर रहा हूँ. वापसी- ८-१० दिनों बाद.
तो भाई लोगो, मुझे सिर्फ इतना ही कहना है, मेरे भरोसे मत रहना.
अस्वस्थ होने के कारण शायद ब्लॉग से एक दो दिन और दूर रहूँ, मेल अवश्य चैक करता रहूँगा।
ReplyDeleteरुकावट के लिये खेद है।
आज बहुत दिन बाद नेट पर आयी हूँ। बहुत बहुत धन्यवाद सब का अपने बहुमुल्य सुझाव दिये हैं जरा दिमाग को सेट कर के एक दो दिन मे इस गज़ल को अन्तिम रूप देती हूँ। अभी केवल सीखने की शुरूयात है देखो सीख पाती हूँ या नहीं सब के सहयोग के लिये धन्यवाद ।
ReplyDeleteachchi ghazal hai.
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