अब तक इस ब्लॉग पर पॉंच ग़ज़लें चर्चा के लिये लगीं और मुझे यह स्वीकारने में कोई झिझक नहीं कि इन पॉंच ग़ज़लों से कोई स्पष्ट दिशा नहीं मिल सकी। कारण मुख्यत: यह रहा कि कोई खुलकर व्यक्त नहीं होना चाहता विशेषकर जब किसी की कही हुई ग़ज़ल पर प्रशंसा न करते हुए कुछ ऐसा कहना हो जो सही तो हो लेकिन ग़ज़ल कहने वाले को सहज स्वीकार्य होने की संभावना कम हो।
नये शाइरों ने शायद आत्मविश्वास की कमी के कारण नहीं कहा और कहने का दायित्व अनुभवी शाइरों पर छोड़ दिया। अनुभवी लोगों ने अपने विचार कुछ हद तक व्यक्त तो किये लेकिन जिनकी ग़ज़लों पर चर्चा हो रही थी उन्होंने यह समझने का प्रयास नहीं किया कि जो सलाह आयी है उसके पीछे कारण क्या है।
पॉंच में से तीन ग़ज़ल कहने वाले ऐसे थे जो पहले से ग़ज़ल कह रहे हैं, स्वाभाविक है कि उनकी ग़ज़ल में काफि़या दोष और कहन पर ही कुछ कहा जा सकता था। दो ग़ज़लें जिस हालत में प्राप्त हुई थीं उस हालत में उन्हें ग़ज़ल कहना मुश्किल था और चर्चा में नहीं लिया जा सकता था लेकिन बात जब सीखने सिखाने की हो तो सीखने वालों को यह भी तो मालूम होना चाहिये कि ग़ज़ल की आधार आवश्यकतायें क्या होती है और यह समझने के लिये अग़ज़ल से बेहतर उदाहरण क्या हो सकता है।
इन दो अग़ज़लों मे से पहली संदेश दीक्षित की थी जो पूरी चर्चा के दौरान मूक दर्शक बने रहे और बाद में भी समय नहीं निकाल पाये। इंद्रनील भट्टाचार्जी की ग़ज़ल भी पहले तो अग़ज़ल के रूप में ही प्राप्त हुई थी लेकिन वो ई-मेल पर चर्चा कर निरंतर उस पर कार्य करते रहे और चर्चा के लिये लगने तक ग़ज़ल को ऐसा रूप दे सके कि उस पर चर्चा हो सके।
टिप्पणी देने की झिझक को देखते हुए मैनें अंतिम ग़ज़ल की शाइरा का नाम नहीं दिया यह ग़ज़ल प्राप्त हुई थी निर्मला कपिला जी से। इनकी ग़ज़ल जिस रूप में प्राप्त हुई थी वह ठीक तो थी लेकिन बह्र बहुत कठिन हो रही थी इसलिये उन्हें बह्र पर कुछ आरंभिक सुझाव देकर आंशिक बदलाव जरूरी हो गया था।
इंद्रनील भट्टाचार्जी और निर्मला कपिला जी की ग़ज़लों में न्यूनतम आवश्यक सुझाव मैनें दिये अवश्य लेकिन काफि़ये और कहन में कोई बदलाव नहीं किया जिससे ग़ज़ल का मूल स्वरूप बना रहे।
पूरे दौर में सर्वाधिक सक्रिय रहे सर्वत साहब और फिर जोगेश्वर गर्ग साहब। प्राण शर्मा जी ने आवश्यकतानुसार तकनीकि बिन्दुओं पर अपना मार्गदर्शन दिया। मुफलिस साहब, नीरज भाई, शाहिद भाई और गौतम राजरिशी की व्यस्तताओं ने उन्हें बहुत समय नहीं देने दिया मैं आशा करता हूँ कि अब वो समय अवश्य निकाल पायेंगे।
किसी के शेर पर समीक्षात्मक टिप्पणी देना अथवा नहीं देना व्यक्तिगत अधिकार है लेकिन नये शाईरों ने इस विषय में संकोच नहीं करना चाहिये। क्या होगा, ज्यादह से ज्यादह लोग हँसेगे कि क्या बेवकूफ़ी भरी टिप्पणी दी है; इस ब्लॉग पर कमसे कम एक लाभ तो होगा कि जब आपकी टिप्पणी की काट आयेगी तो आपको और अधिक विषय स्पष्टता प्राप्त होगी, साथ ही उन्हें भी प्राप्त होगी जो आपकी टिप्पणी और उसपर प्राप्त प्रति-टिप्पणी पढ़ेंगे।
सर्वत साहब ने एक तरहीनुमा हल सुझाया है उसपर काम चालू कर दिया है और उसकी सूचना पिछली पोस्ट में दे ही दी थी। यह तरहीनुमा इसलिये है कि इसमें रदीफ़ काफि़या का बंधन नहीं रहेगा, केवल बह्र का पालन करना होगा। अभी तक चार ग़ज़लें प्राप्त हुई हैं जिनमें से पहली ग़ज़ल आज प्रस्तुत है।
'मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ' की बह्र पर इंद्रनील भट्टाचार्जी की ग़ज़ल चर्चा के लिये:
दिल जिसे हर घडी बुलाता है
जानकर वो जिया जलाता है
प्यार से हाथ फिर मिलाया है
ऐसे ही वो मुझे डराता है
भूल जाये भले ही जख्मों को
याद से पैरहन सिलाता है
पास वो आजकल नहीं आता
दूर से हाथ बस हिलाता है
रात भर जाग कर जो ख्वाब बुने
भोर होते ही भूल जाता है।
उसको लहरों से डर नहीं लगता
रेत पर वो महल बनाता है।
‘सैल’ उसकी अदा निराली है
हार कर वो मुझे हराता है
कृपया खुलकर सुझाव दें।