कवि कुलवंत जी की ग़ज़ल पर चर्चा समाप्त हो चुकी है, विधिवत् समापन अभी नहीं हुआ है, उसके लिये समापन आलेख की जरूरत है। चर्चा में सर्वत साहब के योगदान को देखते हुए मैं चाहूँगा कि यह कार्य वही सम्हालें। तदनुसार उनसे अनुरोध है।
इस पोस्ट की ग़ज़ल इंद्रनील भट्टाचार्जी से प्राप्त हुई है जो अभी ग़ज़ल कहने में नये हैं। 'सैल' उपनाम से लिखते हैं। इनके मामले में भी पहली समस्या बह्र निर्धारित करने की ही है जो 17 मई तक की जाना आवश्यक है जिससे बात आगे बढ़े। रदीफ़ काफि़या तो इसमें है ही। इनके अशआर में सुझाव के साथ-साथ दो एक शेर और आ जायें तो मज़ा आ जाये। अब तक जो ग़ज़लें मेरे पास आई हैं चर्चा के लिये उनमें से एक और बची है अगले सप्ताह के लिये। उसके बाद मेरा विचार है कि ग़ज़ल चर्चा के लिये प्रस्तुत करते समय शाइर का नाम नहीं दिया जाये जिससे चर्चा में जो खुलकर विचार व्यक्त नहीं कर रहे हैं वो भी खुलकर विचार रखें। शाइर का नाम आ जाने से संकोच की स्थिति बनती दिख रही है जो स्वस्थ नहीं है।
चर्चा के लिये प्रस्तुत ग़ज़ल
4-1
कुछ हिन्दू, कुछ मुसलमान, कुछ सिक्ख ईसाई, सम्हल चलो !
ये बस्ती नहीं इंसानों की, तुम जान बचाकर निकल चलो !!
4-2
तुम ऊँचे ओहदे पर होगे, पर दफ्तर घर के करीब तो है !
क्यूँ हमेशा चलना है गाड़ी से, तुम भी कभी पैदल चलो !!
4-3
जम गयी है सोच अब, नहीं आता नया ख्याल कोई !
ढूंढ आते हैं अश'आर कुछ, आते हैं थोडा टहल चलो !!
4-4
कुछ अरमान है, थोड़े से आंसूं, और एक तस्वीर है !
सपनों की वादियों में करते हैं तामीर महल चलो !!
4-5
ग़म भुलाने के लिए 'सैल' ये तरीका अच्छा है बहुत !
बातें यूँ ही दो चार करलें, दिल जायेगा बहल चलो !!
ग़ज़ल की तकनीकियो से अनभिज्ञ हूँ ...पढने का शौक है,इस ग़ज़ल को गुनगुनाकर देखा,कही मज़ा आया कही नहीं .... कोई लय नहीं मिली,शायद उसे ही बहर या मीटर कहते है,भाव बहुत अच्छे ...मेरे लिए तो फिर से सीखने को नया माल मिला है ! अब लोगो के विचार आयेंगे जो किसी भी कक्षा से बेहतर ज्ञान उपलब्ध करा जायेंगे .....मैं तो बस नज़रे गडाए बता हूँ :P
ReplyDeleteतिलकजी ! अब तक इसी इंतज़ार में बैठा था कि कदम-दर-कदम पर आप किसी को लेकर अवतरित हों तो मैं दर्शन लाभ ले कर शयन करुँ. शायर का नाम गोपनीय रखने का आपका सुझाव अच्छा है. उससे चर्चा में खुलापन भी आयेगा और भाग लेने वालों की संख्या भी बढ़ेगी. एक बात स्पष्ट कर दूं ? मैं इस चर्चा में तभी शामिल होउंगा जब आप और सर्वत जी जैसे लोग इसकी बहर निर्धारित कर लेंगे. दूध का जला छाछ को भी फूँक कर (आजकल बर्फ डाल कर) पीता है. शुभ रात्री !
ReplyDeleteहमारे तो दिल को छू गईं भावनाएं। हम भी आया करेंगे यहां पर अपनी रचनाओं का स्वास्थ्य दुरुस्त करवाने के लिए। यदि अनुमति हो तो ... सादर
ReplyDeleteकुछ हिन्दू, कुछ मुसलमान, कुछ सिक्ख ईसाई, सम्हल चलो !
ReplyDeleteये बस्ती नहीं इंसानों की, तुम जान बचाकर निकल चलो !!
lajwaab pankti .........prtyek gazal behtreen hain
बहर तो पता नहीं पर स्वर्गीय सुदर्शन फाकिर की ग़ज़ल "पत्थर के खुदा पत्थर के सनम, पत्थर के ही इन्सां पाए हैं / तुम शहर-ए-मुहब्बत कहते हो, हम जान बचा कर आये हैं" (गायक: जगजीत सिंह) की याद आ रही है. पहली पंक्ति में दो मात्राएँ कम लग रही हैं. बाकी आप जानो.
ReplyDeleteYah HINDI kaa 32 maatraayon kaa chhand hai.
ReplyDeletelay ko barqraar rakhne ke liye 16 maatraaoyon
par yati aanee chahiye yani 22 22 22 22 ke
baad viraam( , ) aanaa chahiye.jaese --
Is paar priye tum ho mdhu hai,
Us paar n jaane kya hoga
Is gazal mein " samhal" aur " nikal" shabdon ko " samh+al aur " nik+ al
yani " dard " ke wazan mein prayukt kiyaa
gayaa hai.SAMHAL AUR NIKAL KE SAHEE WAZAN HAIN- " SA+BHAL " AUR " NI+KAL" .EK aur baat,
Radeef - Chalo kee saath " paidal" qaafiya
kaa prayog sahee nahin
तिलक जी,
ReplyDeleteमेरा कसूर क्या है? यही ना कि साफ़-साफ़ सच बोला और सच के सिवा कुछ नहीं कहा. अब इतनी बड़ी सज़ा? उसे बहर में फिट करना, इतना ही आसान है जितना पाकिस्तान की भारत से मित्रता. मैं तो मतला पढ़ने के बाद अगला शेर पढ़ने की हिम्मत ही नहीं जुटा सका. फिर आपकी प्रस्तावना पढ़ी, फिर यकीन आ गया कि शराफत का जमाना ही नहीं रहा. शायद चचा ग़ालिब ने ऐसे ही किसी मौके पर कहा होगा ------------ "हैरां हूँ दिल को रोऊं या पीटूं जिगर को मैं".
दिन भर का थका हारा, फील्ड ड्यूटी से अभी लौटा तो सोचा कि तिलक भाई का ब्लॉग देखूं, कुछ आँखों को ठंडक मिले. लेकिन यहाँ तो अजमल कसाब से पहले सर्वत जमाल को फांसी चढ़ाने की तैयारी है.
जो हुक्म, लेकिन आज नहीं कल.
प्राण साहब के सुझाये छंद के समकक्ष बह्र हुई 2222 2222 2222 2222 यानि मुतदारिक मुसम्मन् मक्तुअ मुदाइफ।
ReplyDelete@सर्वत साहब
यहॉं कसाब को फॉंसी की बात नहीं है, यहॉं तो भगतसिंह और राजुगुरू तलाशे जा रहे हैं जो असेम्बली में बम भी फ़ोडें (बिना किसी को नुक्सान पहुँचाये) और सरफ़रोश भी हों। अब आप ग़ल़ती कर चुके हैं इस सॉंचे में फिट होने की तो मैं ग़रीब क्या कर सकता हूँ। अभी आपकी इतनी उम्र नहीं हुई कि आप भूल जायें कि मुहब्बत में ये सब तो होता ही है।
bahut achha lag rahaa hai magar majaboor hoon ki roz apani mail bhee check nahin kar paa rahi blog par aanaa to door kee baat hai. kuch diun pajale mrs Dr Ajit gupta jee amerika me hi milee meree beti ke nivas sthan par vo post bhee nahee lagaa paa rahi hoon magar ye blog dekhna nahin bhoolati bas padh kar chali jati hoon kuch sochane aur kahane kaa time nahin mil rahaa . kaash jaldee se june aaye to mai india aayoon tabhee kuch seekh aur likh paaoongee shubhakaamanaayen
ReplyDeletenice
ReplyDeleteइंद्रनील भट्टाचार्जी की ग़ज़ल पर भी वही ठंडी प्रतिक्रिया की स्थिति हो रही है जो संदेश दीक्षित की ग़ज़ल पर थी। यह अपने आप में एक संकेत है कि ग़ज़ल कहने के शुरुआती दौर में आसान और छोटी बह्रों पर और सरल रदीफ़ काफि़ये के साथ काम करना चाहिये अन्यथा सुझाव देने वाले के लिये समस्या पैदा हो जाती है कि वह सुझाव बह्र पर दे, रदीफ़ काफि़ये पर दे या कहन पर। सलाह का प्रचलन यह है कि सलाह व्याकरण शब्द चयन व कहन तक सीमित रहती है। थोड़ा इसका ध्यान रखा जायेगा तो ठीक रहेगा।
ReplyDeleteचर्चाधीन ग़ज़ल के दो शेर मूल भावना को कायम रखते हुए ऐसे भी कहे जा सकते हैं। इंद्रनील इसको समझकर और आधार बना कर अगर मेहनत करें तो उनकी रचना शायद ग़ज़ल कही जा सके।
4-1
कोई सिख है, कोई मुसल्मां, हिन्दू या ईसाई कोई
मज़्हब सौ पर कोइ न इन्सां, इस बस्ती से निकल चलो।
4-2
उँचा पद औ शानो शौकत, जीने को ज़रूरी हर सामां
लेकिन दिल को चैन न हो तो, खुद को ही तुम बदल चलो
मेरा सुझाव प्राण साहब के सुझाये छंद के समकक्ष बह्र हुई 2222 2222 2222 2222 यानि मुतदारिक मुसम्मन् मक्तुअ मुदाइफ पर आधारित है।
ReplyDelete@इंद्रनील भट्टाचार्जी
ReplyDeleteनीरज भाई के ब्लॉग http://ngoswami.blogspot.com/2010/05/29.html पर जांनिसार अख़्तर साहब की शाइरी पर छपी एक किताब के संदर्भ में अख़्तर साहब के कुछ शेर आये हैं।
आये क्या क्या याद, नज़र जब पड़ती उन दालानों पर
उसका काग़ज़ चिपका देना, घर के रौशनदानों पर
सस्ते दामों ले तो आते लेकिन दिल था भर आया
जाने किस का नाम खुदा था, पीतल के गुलदानों पर
आज भी जैसे शाने पर तुम हाथ मेरे रख देती हो
चलते चलते रुक जाता हूँ, साड़ी की दूकानों पर
इन अशआर को पढ़कर शेर क्या होता है यह समझना आसान रहेगा, जरूर देखें।
@इंद्रनील भट्टाचार्जी
ReplyDeleteअब तक तीन शेर कच्चा रूप ले पाये हैं, शायद आपके कुछ काम आ जायें।
4-1
कोई सिख है/, कोई मुसल्मां/, हिन्दू या ई/साई कोई
मज़्हब सौ पर/ कोइ न इन्सां/, इस बस्ती से/ अब निकल चलो।
4-2
उँचा पद औ/ शानो शौकत/, जीने को ज़रू/री हर सामां
लेकिन दिल को/ चैन न हो तो/, खुद को ही तुम/ कुछ बदल चलो
4-3
सोच जमी है/ बर्फ़ के जैसी/, ग़ुम तेरे खया/लों की दुनिया,
कहने को अश/आर नया मिल/ जाये आते/ हैं टहल चलो
इन्हें अंतिम सलाह न मानें, मात्र आधार है यह।
ब्लॉग पर नजरें जमाए सभी साथियो और तिलक जी,
ReplyDeleteइस गजल के लिए मुझे अभी समय मिला और मैं इसे लेकर बैठा. पहली बार पूरी गजल संजीदगी से पढ़ी. अब मालूम हुआ कि यह टेढ़ी खीर नहीं, टेढ़ा कटहल है जिसे इस शर्त के साथ परोसा गया है कि एक ही बार में खाना है.
मैं किसी नवोदित रचनाकार या गजल सीखने की इच्छा रखने वाले नौजवान को आहत नहीं कर रहा हूँ. दरअसल गजल शास्त्र का ज्ञान न होने पर गद्य भी शेर लगता है. इन्द्रनील के साथ भी ऐसा ही कुछ है. इस मासूम को गजल का व्याकरण नहीं पता, काफिए नहीं मालूम, बहर नहीं पता---- और हम ऐसे नवोदित को खराद पर चढ़ा कर छीलने का प्रयास कर रहे हैं.
मैं इस गजल को बहर में कर सकता हूँ, यह मैं घमंड से नहीं कह रहा हूँ बल्कि शायद आप में से कुछ लोग मेरा समर्थन भी करेंगे. लेकिन इस गजल की बहर दुरुस्त होते ही इसके अर्थ, अनर्थ में बदल जाएँगे, ऐसा मुझे लगता है.
तिलक जी, यदि मेरी बात से आपको इत्तिफाक न हो तो खुले आम बताइएगा, मैं जब भी अवसर मिलता है, इस ब्लॉग पर आता जरूर हूँ.
होना यह चाहिए कि जिस रचनाकार की गजल पर काम किया जाना हो, वह गजल उन २-३-४ बन्दों को पहले मेल करके इस पर आम सहमति बनाई जाए कि यह गजल उचित है अथवा नहीं. ऐसा नहीं हो रहा है और तिलक जी आप अकेले हलकान हो रहे हैं.
इन्द्रनील का उत्साह खत्म न हो, इस लिए उन्हें कहती बहर का कोई मिसरा दिया जाए और उस पर उन्हें गजल कहने को प्रेरित किया जाए.
मैं ने जो बात रखी है, यदि किसी को चोट पहुंची हो तो क्षमाप्रार्थी हूँ.
सबसे पहले तो मैं कपूर साब को धन्यवाद देना चाहता हूँ कि वो इस नाचीज़ की एक रचना को यहाँ स्थान दिए ...
ReplyDeleteमैं बहुत डरते डरते ये उनके पास भेजा था कि पता नहीं वो इसे देखेंगे भी या नहीं, पर अब देखकर अच्छा लग रहा है कि उन्होंने न केवल देखा, बल्कि उसमे सुधार लाने के लिए अपना अमूल्य समय भी दे रहे हैं ...
यदि मैं उनसे कुछ सीख पाया, तो ये मेरे लिए तो अच्छा होगा ही, मगर उन्होंने जो अपना समय मेरी रचना के लिए दिए हैं, उस समय का लाज रख पाऊँगा ...
आपने ऊपर जो छंद सुझाये हैं ... मैंने उस पर बाकि के पंक्तियों को ढालने कि कोशिश की है ... जानता हूँ फिर भी गलतियाँ होगी ... पर उम्मीद है कि आप मार्गदर्शन करते रहेंगे ...
२ २ २ २/ २ २ २ २/ २ २ २ २/ २ २ २ २
कुछ अरमां है/ थोड़े आंसूं/ और एक धुंधली/ सी तस्वीर है
सपनों की वा/ दीयों में कर/ ते हैं तामीर/ एक महल चलो
ये तरकीब का/ फी अच्छा है/ गम भुलाने/ के लिए ‘सैल’
यूँ ही दो चार/ बातें कर लें/ दिल जायेगा/ फिर बहल चलो
एक बार फिर सर्वत साहब आपके समक्ष हैं। मुझे तो इनकी बात पूरी तरह जाइज़ लग रही है। वस्तुत: एक अन्य मेल पर यह उत्तर भी मैं दे चुका हूँ कि बस एक ग़ज़ल और बची है जो पूर्व में ही स्वीकार की जा चुकी है उसे चर्चा के लिये प्रकाशित करने के बाद इस बात का विशेष ध्यान रखा जायेगा कि ऐसी ग़ज़लें प्रस्तुत हों कि चर्चा कहन-सुधार या मामूली वज़्न-सुधार तक ही सीमित रहे।
ReplyDeleteसंदेश और इंद्रनील की तथाकथित ग़ज़लें प्रस्तुत करने का अपना ही एक उद्देश्य था जो सर्वत साहब की इस टिप्पणी के साथ पूरा हो गया है कि ऐसा गद्य भी हो सकता है जो पद्य का भ्रम पैदा करे। यह ग़ज़लगोई में उतरने वालों के लिये एक महत्वपूर्ण पाठ है; इसे समझने का प्रयास करें। ग़ज़ल में बहुत कुछ है जो सीखा जा सकता है लेकिन सब कुछ सीखा नहीं जा सकता वह अभ्यास से आता है।
इंद्रनील की ग़ज़ल तो मुझे अब काफ़ी करीब पहुँच गयी लगती है एक नवोदित ग़ज़ल कहने वाले के स्तर के। लेकिन अगर इंद्रनील इसे ग़ज़ल मान लेते हैं तो फिर एक भ्रम होगा क्यूँकि इसे ग़ज़ल कहने के लिये इसमें मत्ले का शेर भी होना चाहिये। मैं चाहूँगा कि अब इंद्रनील मत्ले का शेर भी कह दें तो बेहतर होगा। उन्हें अभी बाकी अशआर पर भी निर्णय लेना होगा। मैनें जो सुझाव दिये हैं मैं उनसे संतुष्ट नहीं हूँ लेकिन किसी की शुरुआती ग़ज़ल में स्वीकार किये जा सकते हैं।
मत्लेका शेर:
ReplyDeleteअपने ही ना/राज लगें तो/ लो खुद को ही/ तुम बदल, चलो
कटु लगता हो/ तो समझो ये/ मंथन जन्मा/ इक गरल, चलो।
4-1
कोई सिख है/, कोई मुसल्मां/, हिन्दू या ई/साई कोई
मज़्हब सौ पर/ कोइ न इन्सां/, इस बस्ती से/ अब निकल चलो।
4-2
उँचा पद औ/ शानो शौकत/, जीने को ज़रू/री हर सामां
लेकिन दिल को/ चैन न हो तो/, कर लो जीवन/ कुछ सरल, चलो
4-3
तेरी यादों/ की दुनिया में/ गुम सोच जमी/ है बर्फा़नी
घर के बाहर/ के मंज़र से/ शायद मन कह/ले ग़ज़ल चलो।
4-4
कुछ अरमां कुछ/, ऑंसू हैं औ/इक तस्वीर/ तुम्हारी है
साथ इन्हें ले/कर शायद हम/ जी लें सपनों/ का महल, चलो।
4-5
भूल सकूँ ते/रे ग़म को मुम/किन तो नहीं/ होगा लेकिन
'सैल' जरा को/शिश करने से/ ये दिल जाये/गा बहल, चलो
सभी से अनुरोध है की उपरोक्त पंक्तियों की बेहतरी के लिए अपना सुझाव ज़रूर दीजियेगा ... आपके सुझावों को पाकर मैं अत्यंत आनंदित अनुभव करूंगा ...
@ इन्द्रनील,
ReplyDeleteआपकी कोशिश सराहनीय है. बहुत मेहनत कर डाली आपने. यह भी महसूस किया होगा कि गजल का असल रूप पाने में कितना पसीना बहाना पड़ता है. अब सिर्फ अंदाज़ा लगाइए, तिलक जी ने कितनी मेहनत की होगी.
आपकी गजल को थोड़ा सा तोड़ा मरोड़ा और झिंझोड़ा है मैं ने. आइए देखते हैं:
अपने ही नाराज़ लगें तो खुद को ही तुम बदल चलो
कटु लगता हो तो यह समझो मंथन जन्मा गरल, चलो
सिख कोई, हिन्दू कोई, मुस्लिम कोई, ईसाई कोई
मजहब सौ, पर एक न इन्सां, इस बस्ती से निकल चलो
ऊंचा पद, शानो शौकत, जीने का जरूरी हर सामान
दिल को फिर भी चैन नहीं तो कर लो जीवन सरल, चलो
माना यादों की दुनिया में बर्फ जमी है, उलझन है
फिर बाहर का मंजर देखें, शायद कह लें गजल, चलो
कुछ अरमां, कुछ आंसू हैं और इक तस्वीर तुम्हारी है
जब इन के ही संग जीना है फिर, सपनों के महल चलो
उसके गम को भूल सकूं मैं, नामुमकिन तो है लेकिन
'सैल' जरा कोशिश करने से दिल जाएगा बहल, चलो.
तिलक जी और सर्वत जी, दोनों को मेरा प्रणाम ! आप दोनों मेरे लिए कितनी मेहनत किये और कितना समय दिए ... यह सोचकर भी मैं खुदको भाग्यवान महसूस करता हूँ ... पहले पानी जमा हुआ था, और अब तो थिरक थिरक के झरने सा बह रहा है, एक टूटी-फूटी कुटिया को आप दोनों ने मिलकर पक्का मकान बना डाला ... हाँ ये ज़रूर है की नीव कमज़ोर थी तो शायद आप लोगो को संतुष्टि न होगी, पर मेरे लिए तोकाफी है .... अब आगे यदि कोई कुछ और सुझाव दे तो वो भी स्वागत है ....
ReplyDeleteयहॉं एक अंतर और है जो काबिले गौर है, वह है किसी विधा के बाहरी आवरण को देखकर मोहित हो जाना और उस विधा को गंभीरता से समझकर अपनाना। इंद्रनील के प्रयासों का परिणाम स्पष्ट दिख रहा है। जो ग़ज़ल या कहूँ कि अग़ज़ल पूरी तरह नकारने लायक थी वह अब ग़ज़ल तो कही जा सकती है।
ReplyDeleteआज फुरसत से बैठा हूँ इस ब्लौग पर।
ReplyDeleteआप और सर्वत जमाल साब की ये मेहनत...जितनी तारीफ हो, कम है। काश कि हमें भी ऐसे गुरूजन पांच-छः साल पहले मिल गये होते...
हम जैसे हर ग़ज़ल सीखने वालों के लिये ये ब्लौग किसी गुरू-आशिर्वाद जैसा ही है।
इंद्रनील जी का परिश्रम रंग लायेगा