कहना सरल होगा कि इस बार सबकी व्यस्तता कुछ ज्यादह ही रही, लेकिन नहीं; समस्या इस बार दूसरी थी। होता यह है कि जिन ग़ज़लों पर चर्चा होती है उनमें बह्र, रदीफ़ और काफिया स्पष्ट होता है, चर्चा सीमित रह जाती है कहन और शिल्प, व्याकरणादि पर। स्वाभाविक है इस विषय पर स्पष्टता नहीं होने के कारण सुझाव देने में असमंजस की स्थिति बनी रही, क्षमाप्रार्थी हूँ इस स्थिति के लिये। यह ग़ज़ल मुझे अपनी प्रकृति के अनुरूप लगी, एक खुली चुनौती की तरह, इसीलिये ली वरना कमज़ोर ग़ज़ल को नकारना आसान होता है।
चूँकि बह्र स्पष्ट की जाना जरूरी था, पहला प्रयास मैनें वही किया और कोशिश करी कि प्राप्त रदीफ़ काफिया रखते हुए इसे निबाहने का प्रयास किया जाये। इसीलिये प्राथमिक प्रयास को पोस्ट पर ही प्रस्तुत किया तक्तीअ, मत्ले और तीन मिस्रा-ए-सानी के साथ। जैसा कि नीचे दिया गया है:
1 | 2 | 2 | 2 | 1 | 2 | 2 | 2 | 1 | 2 | 2 | 2 | 1 | 2 | 2 | 2 |
ते | रा | ना | मलि | ख | कर | सॉं | सों | प | रन | या | का | म | औ | रस | ही |
ल | हू | अग | रक | म | है | तो | मौ | त | ते | रे | ना | म | औ | रस | ही |
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ते | री | या | दप | र | कुर | बॉं | कर | दूँ | मैं | इक | शा | म | औ | रस | ही |
ते | रे | ख्वा | ले | दि | ल | कह | ता | कि | पी | इक | जा | म | औ | रस | ही |
दु | श्म | नब | नक | र | जी | स्त | ने | लि | या | इंत | का | म | औ | रस | ही |
जब ये तक्तीअ मैं कर रहा था लगातार लग रहा था कि कुछ ग़लती हो रही है, लेकिन समय के दबाव में गलती का एहसास भर हो रहा था समझ नहीं आ रही थी। पोस्ट लगने के बाद दो दिन तक जब कोई सुझाव नहीं आया तो इसी बह्र पर एक उदाहरण ग़ज़ल 'रास्ते की धूल' पर लगा दी और उसके साथ ही इस ब्लॉग की पोस्ट संशोधित कर दी जिसमें रदीफ़, काफिया के विकल्प भी लगा दिये कि शायद अब गाड़ी आगे बढ़े। अब बह्र, रदीफ़ और काफिया तीनों उपलब्ध होते हुए भी शायद बहुत से वैकल्पिक रदीफ़ होने के कारण कोई सुझाव नहीं आया।
इस पूरे प्रयास में कहीं से भी कोई भी बात ऐसी नहीं आयी जो बात आगे बढ़ा सके। इस बीच मैं लगातार उपर दी गयी तक्तीअ पर सोच रहा था कि तक्तीअ ठीक होते हुए भी पंक्तियॉं पढ़ने में अटक क्यों रही हैं। हो यह रहा है कि मात्रिक गणना ठीक होते हुए भी 'मफ़ा ई लुन्' की एक विशेष प्रकृति है जो सारी समस्या की जड़ है। http://subeerin.blogspot.com पर 22 दिसम्बर 2009 का पोस्ट देखकर कोशिश करें समझने और समझाने की।
नीचे दिये गये उदाहरणों को पढ़ कर देखकर 'और सही' वाली तक्तीअ देखें।
म | फ़ा | ई | लुन् | म | फ़ा | ई | लुन् | म | फ़ा | ई | लुन् | म | फ़ा | ई | लुन् |
1 | 2 | 2 | 2 | 1 | 2 | 2 | 2 | 1 | 2 | 2 | 2 | 1 | 2 | 2 | 2 |
ल | हू | कम | है | अ | गर | जा | नम | तु | झे | मैं | जा | न | भी | दे | दूँ |
अ | गर | कम | है | ल | हू | जा | नम | तु | झे | मैं | जा | न | भी | दे | दूँ |
अ | गर | जा | नम | ल | हू | कम | है | तु | झे | मैं | जा | न | भी | दे | दूँ |
ते | रा | घर | है | ज | ला | दे | तू | मु | झे | क्या | फर् | क | पड़ | ता | है |
मु | झे | क्या | फर् | क | पड़ | ता | है | ज | ला | दे | तू | ते | रा | घर | है |
मु | झे | क्या | फर् | क | पड़ | ता | है | ते | रा | घर | है | ज | ला | दे | तू |
अब कोशिश तो कर ही सकते हैं समझने समझाने की।
आगे की बात:
संदेश दीक्षित ने सख़्ती-कशाबे-इश्क का प्रयोग किया है।
सख़्तीकश तो हुआ मुसीबत झेलने वाला और आब-ए-इश्क हुआ प्रेम का रस(ठीक न हो मुझे बतादें, मेरा उर्दूज्ञान विश्वसनीय नहीं है)। प्यारेलाल 'शोकी';जी ने कहा था:
जिन प्रेम रस चाखा नहीं, अमृत पिया तो क्या हुआ
जिन इश्क में सर ना दिया, सो जग जिया तो क्या हुआ।
अब ये प्राप्त ग़ज़ल किनारे लगना जरूरी है और समय सीमा को देखते हुए मैं अपनी ओर से संदेश दीक्षित की कहन के करीब रहते हुए उनके चारों अश्आर पर अपना सुझाव दे रहा हूँ। सुझाव के हर शेर में पहली और आखिरी पंक्ति मेरी ओर से प्रस्तावित है अंतिम नहीं। अंतिम होगी सुझाव प्राप्त होने के बाद। बीच में जो कुछ है वो सुधार के चरण हैं। सुधार के साथ-साथ पहली पंक्ति उपर बढ़ती गयी है और दूसरी पंक्ति नीचे।
इन अश्आर पर भी चर्चा आमंत्रित है शनिवार सुब्ह तक जिससे शनिवार रात वे अपनी ग़ज़ल को अंतिम रूप दे सकें।
इसमें कुछ नये अशआर के सुझाव भी आमंत्रित हैं जिससे एक मुकम्मल ग़ज़ल पूरी हो सके। 'आओ' काफिया है और 'तुम' रदीफ़। बह्र वही 'मफ़ा ई लुन' x 4 या 1222, 1222, 1222, 1222।
2-1
तुम्हें गर दाग दिखते हैं तो चन्दा भूल जाओ तुम
अगर हैं दाग चन्दा में तो उसको भूल जाओ तुम
अगर हैं दाग चन्दा में तो उनको भूल जाओ तुम
मुहब्बत की है जब तुमने, सितारों से सजाओ तुम
सजाने को मुहब्बत को सितारे ढूँढ लाओ तुम
सजानी है मुहब्बत तो सितारे ढूँढ लाओ तुम
मुहब्बत है सजानी तो सितारे ढूँढ लाओ तुम
2-2
अगर वो याद आते हैं, तो शामें यूँ मनाओ तुम
भुलाकर जाम-ओ-मीना इबादतगाह जाओ तुम।
वहॉं जाओ, जहॉं जाकर, सभी कुछ भूल जाओ तुम।
2-3
लिखा है नाम सॉंसों पर फना जीवन किया उनपे
जिगर का खून है कम तो जहॉं को छोड़ जाओ तुम
जिगर का खून देकर मॉंग सजनी की सजाओ तुम।
जिगर का खून देकर मॉंग प्रियतम की सजाओ तुम।
2-4
सदा सख्ती-कशाब-ऐ-इश्क से लड़ते रहे हो तुम
अगर है जीस्त ही दुश्मन गले इसको लगाओ तुम
बना है इश्क ही दुश्मन गले इसको लगाओ तुम
बना जब इश्क ही दुश्मन गले इसको लगाओ तुम।
ये तो हुए चार शेर कच्चे-पक्के अब इनको अंतिम रूप देने में और कफछ और अश्आर कहने में आपका सहयोग ही काम करेगा।
भाई साहिब भी आपकी तरह तो गज़ल की जानकार नही हूँ फिर दोबारा गज़ल पढ कर कोशिश करती हूँ फिर आती हूँ। आजकल कुछ समय भी कम मिल रहा है लेकिन जून के बाद पूरी तरह गज़ल के लिये समर्पित हो जाऊँगी कहीं इस बात से नाराज़ हो कर पोस्ट लगाना बन्द न कर दें कि कोई सुझाव नही आ रहा। अब मेरे जैसे नासमझ आपको सुझाव दे भी क्या सकते हैं मैने तो इतने दिनो मे बहुत कुछ नया सीखा है और तकतीह का ये तरीका भी मेरे लिये नया और बहुत काम का है । आपका धन्यवाद। ये ब्लाग सब के लिये बहुत काम का साबित होगा। फिर आती हूँ\ धन्यवाद और शुभकामनायें
ReplyDeleteतिलक जी,
ReplyDeleteपहली कोशिश है. गलतियाँ माफ़ कीजियेगा.
नशा है इशक का अच्छा कि बेहतर मयकशी का है,
मुझे ये आजमाना है, चलो अब जाम लाओ तुम.
न शा है इश क का अच छा कि बेह तर मय क शी का है,
१ २ २ २ १ २ २ २ १ २ २ २ १ २ २ २
मु झे ये आ ज मा ना है, च लो अब जा म ला ओ तुम.
(यहाँ "बे" को "ब" माना है. अतः बेहतर के "बह" को १+१ = २ किया है.)
अगर इक चाँद पर मर भी मिटे तो क्या किया हासिल,
मज़ा तो तब हो जो सारा जहाँ अपना बनाओ तुम.
अ गर इक चाँ द पर मर भी मि टे तो क्या कि या हा सिल,
१ २ २ २ १ २ २ २ १ २ २ २ १ २ २ २
म ज़ा तो तब हो जो सा रा ज हाँ अप ना ब ना ओ तुम.
( "हो" गिराया हुआ है.. पता नहीं ठीक किया या नहीं.)
तिलक जी,
ReplyDeleteपहले वाली टिप्पणी के शेरों में मैंने शायद मैंने ग़ज़ल के मूल भाव को मार दिया था.
दो और कोशिशें कर रहा हूँ. ग़लतियों के लिए माफ़ी चाहता हूँ. कृपया मार्गदर्शन करें.
सदा सख्ती-कशाब-ऐ-इश्क से लड़ते रहे हो तुम
खड़ी है सामने मंजिल तो यूँ ना डगमगाओ तुम
ख ड़ी है सा म ने मं जिल तो यूँ ना डग म गा ओ तुम.
१ २ २ २ १ २ २ २ १ २ २ २ १ २ २ २
(यहाँ तीसरे रुक्न में "तो" गिर के लघु किया है.)
जो चंदा से मुहब्बत है, तो सब कुछ भूल जाओ तुम,
अगर हों दाग भी उसमें उसे उतना हि चाहो तुम.
(मतला बनाने की कोशिश की है..)
जो चन दा से मु हब् बत है, तो सब कुछ भू ल जा ओ तुम,
१ २ २ २ १ २ २ २ १ २ २ २ १ २ २ २
अ गर हों दा ग भी उस में उ से उत ना हि चा हो तुम.
(मिसरा उल का पहला "जो" गिराया हुआ है...कृपया बताएं की क्या ऐसा हो सकता है किसी मिसरे के शुरू में?)
-राजीव भरोल
तिलकजी !
ReplyDeleteनमस्कार !
"कदम दर कदम" एक अच्छी कोशिश है. आपकी हिम्मत की दाद देता हूँ. एक बात कहूं ? "आइये एक शेर कहें" जैसा माहोल नहीं बन पा रहा. कुछ नया आईडिया लगाइए ना !
संदेशजी की पूरी ग़ज़ल एक बार अपने मूल रूप में तो पोस्ट करते हुज़ूर. उसके बिना कुछ कमेन्ट करना मुश्किल लग रहा है. "हीर" आपा की ग़ज़ल पर चर्चा बहुत ही उपयोगी और ज्ञानवर्धक रही.
मूल ग़ज़ल पिछली पोस्ट पर थी। चलिये, अब नयी ग़ज़ल कल रात लगनी है उसपर काम करते हैं, यह तो ठंडी ही रही। गवाह चुस्त मुद्दई सुस्त की हालत रही।
ReplyDeleteतिलक जी,
ReplyDeleteप्रणाम.
इसी ब्लॉग के दूसरे पोस्ट में पढ़ा की "शहर" को "शह्र" पढ़ा जाता है और "बहर" को "बह्र" कहा जाता है.
इसका मतलब ये हुआ की इन दोनों शब्दों का वजन १-२ हुआ.
क्या मैं ठीक कह रहा हूँ?
कृप्या दर्शन करें. अभी अभी पढना शुरू किया है अतः अगर मेरे प्रश्न अजीब लगें तो माफ़ी चाहता हूँ.
-राजीव भरोल
शह्र को शहर पढ़ें या शह्र कोई अंतर नहीं है। समस्या यह है कि कुछ हिन्दी ग़ज़ल कहने वाले इसके वज्न को सुविधानुसार 1 2 भी ले लेते हैं और 2 1 भी जबकि यह 2 1 ही ठीक है। अगर आप 2 1 का वज्न लेकर चलते हैं तो शायद ही कोई आपसे पूछे कि शहर को शह्र क्यों नहीं लिखा। अगर आप 1 2 में गिनने का लाभ लेना चाहें तो नगर लिखकर काम चलालें कोई आपत्ति नहीं आयेगी, ग़ज़लिया मिठास जरूर कम हो जायेगी।
ReplyDeleteधन्यवाद तिलक जी.
ReplyDeleteप्रणाम,
राजीव
इस ग़ज़ल (या कहे की रचना,ग़ज़ल रूप में ये स्वीकार्य नहीं है ) की प्रष्ठभूमि,दो प्रेमियों के काफी दूर रहने की वजह से उठी असंतुस्ठी है १ जब भौतिक दूरियां ज्यादा हो तो एक दुसरे पर इलज़ाम लगने शुरू हो जाते है जबकि उन इल्जामो का कोई आधार नहीं होता .
ReplyDeleteपहला शेर उसी भाव को रूपित करता है ,
दूसरा शेर ,प्रेमी, प्रियतम की याद को भुलाने के लए शराब पीता है ,लेकिन फिर भी उसे भुला नहीं पाता,फिर हिसाब करता है की इतने जाम पीने के बाद कितना उसे भुलाया?उसकी याद में कितनी शाम वो रोया और कहता है की इस शराब से तेरी याद भूल जाये तो फिर वोऔर पीना शुरू करे .
तीसरा शेर, प्रेमी कहता है ki जब भी मैं सांस लेता हू तो तेरा नाम आता है ,मेरी जिंदगी तुझ पर कुर्बान हो चुकी है,मेरी आँख से जो आंसू निकले हिया अगर वो तुझे झूठे लगते है तो फिर तो सिर्फ मेरी मौत है जो तुझे यकीं दिला सकती है की मैं तुझसे कितना प्यार करता हू
चौथा शेर कहता है की प्यार के धुश्मानो से तो मैं बहुत लड़ा हू और जीता भी हू लेकिन अगर जिंदगी ही दुश्मन हो जाये तो उस से भी इंतकाम ले लूँगा .
तिलकजी !
ReplyDeleteएक अगज़ल (जो ग़ज़ल नहीं है) को ग़ज़ल बनाने की आपकी ज़द्धोज़हद सराहनीय है. संदेशजी ने एक चुनौती रख दी है हम सब के सामने. स्पष्ट ही दिखाई दे रहा है कि इस ग़ज़ल में आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे. सारे या अधिकाँश परिवर्तन हम ही कर देंगे तो फिर संदेशजी कब और कैसे सीखेंगे ? इसलिए मेरा सुझाव है कि आप द्वारा दी गयी इस्लाह पर संदेशजी खुद अपनी ग़ज़ल को व्यवस्थित कर के पुनः अवलोकनार्थ पोस्ट करे.
इस ग़ज़ल की आत्मा "और सही" में बसी है. इस रदीफ़ को बदले बिना सिर्फ काफिया और बहर बदल कर इसे ठीक किया जाय तो कैसा रहेगा ?
मुकम्मल बहरों के बारे में मेरी जानकारी शून्य है. इसलिए मैं ज्यादा पंचायती करने की स्थिति में नहीं हूँ. मगर जबसे ये ग़ज़ल पढी है तब से एक और ग़ज़ल मेरे ज़हन में लगातार घूम रही है. संदेशजी से निवेदन है कि इस ग़ज़ल को गुनगुनाएं और उस मीटर पर अपनी ग़ज़ल को साधने का प्रयास करे. यह ग़ज़ल किन्हीं "मुराद" साहब ने कही है और चित्रा सिंह जी ने इसे अपनी खूबसूरत आवाज़ में गाया है. ग़ज़ल इस प्रकार है:
मेरा दिल भी शौक़ से तोड़ो
एक तजुर्बा और सही
लाख खिलौने तोड़ चुके हो
एक खिलौना और सही
रात है ग़म की आज बुझा दो
जलता हुआ हर एक चिराग
दिल में अन्धेरा हो ही चुका है
घर में अन्धेरा और सही
दम है निकलता इक आशिक का
भीड़ है आकर देख तो लो
लाख तमाशे देखे होंगे
एक नज़ारा और सही
खंज़र ले कर सोचते क्या हो
क़त्ल "मुराद" भी कर डालो
दाग हैं सौ दामन पे तुम्हारे
एक इजाफा और सही
फिर आपका मतला ये हो सकता है:
"चाँद कहे मैं दागी हूँ तो
ढूंढ सितारा और सही
खूब लगे इलज़ाम इश्क पर
एक तुम्हारा और सही "
और काफिये होंगे किनारा, सहारा, इशारा, हमारा, गुजारा, बिचारा आदि आदि. अब इसकी बहर तलाशना और तक्तीअ करना तिलकजी के जिम्मे.
सॉरी तिलकजी !
धनयवाद जोगेश्वर जी , थोड़ी व्यस्तता है,आपके द्वारा दिए गए मीटर में लिखने की कोशिश करूँगा .....शायद एक आप ही का सुझाव मेरी समझ में आया है वरना बाकि सारी बातें तो मेरे दिमाग के ऊपर से निकल रही थी.....कुछ दिनों में उपस्तिथ होता हूँ ...!!!
ReplyDeleteजोगेश्वर जी की उदाहरण ग़ज़ल की बह्र है मुतदारिक मुसम्मन् मक्तुअ मुदाइफ महजूफ। इसके रुक्न हैं मुस्तफ्फैलुन् (ऽऽऽऽ),मुस्तफ्फैलुन् (ऽऽऽऽ),मुस्तफ्फैलुन् (ऽऽऽऽ),फ़ैलुन् (ऽऽ),फ़ा (ऽ)। यह मुज़ाहिफ़ शक्ल है। यहॉं यह ध्यान रखना होगा कि मुस्तफ्फैलुन् (ऽऽऽऽ)= फ़ैलुन् (ऽऽ)x2 इसीलिये इसके नाम में मुदाइफ आया है। वस्तुत: यह फ़ैलुन् (ऽऽ)x8 में आखिरी फैलुन के जि़हाफ़ से बनी है एक अंतिम दीर्घ कम करके और फ़ैलुन स्वयं जि़हाफ़ है। अब चूँकि ग़ज़ल प्रस्तुतकर्ता ही कुछ अंतराल चाहते हैं। हम आगे बढ़ते हैं नयी पोस्ट लेकर।
ReplyDeleteभाई साहिब क्या ये मतला सही होगा?
ReplyDeleteेअगर हैं दाग इतने चाँद मे एक दाग और सही
लगे इल्जाम जितने इश्क पर एक बार और सही
अगर सही है तो क्या इस पर आगे चलूँ ? धन्यवाद्