पिछली बार चर्चा के लिये प्राप्त ग़ज़ल पर अभी काम पूरा नहीं हो पाया है। संदेश दीक्षित जी ने उनकी व्यस्तता के कारण कुछ समय चाहा है। वह ग़ज़ल अभी लंबित रखते हुए काम आगे बढ़ाते हैं।
इस बार चर्चा के लिये प्राप्त ग़ज़ल:
प्रस्तुत ग़ज़ल कवि कुलवंत सिंह जी से प्राप्त हुई है जो किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं, लगभग सभी हिन्दी ब्लॉग्स पर प्रकाशित हो चुके है, अपना ब्लॉग भी चलाते हैं।
ग़ज़ल की बह्र उनके द्वारा अनुमान से यह बताई गयी है:
221, 1221, 1221, 1221; मफ़ऊलु, मफ़ाईलु, मफ़ाईलु, मफ़ाईलु।
यह कोई ज्ञात बह्र नहीं है अत: सबसे पहले तो इसकी बह्र निर्धारित की जाना जरूरी है जिससे सभी सुझाव किसी निश्चित बह्र पर हों। यह दायित्व किसी को तो लेना ही होगा।
मैं कुछ अपरिहार्य कारणों से दिनांक 10 मई दोपहर बाद से दिनांक 13 मई सुब्ह तक इंटरनैट नियमित रूप से चैक नहीं कर पाउँगा इसलिये विशेष अनुरोध है कि कृपया इस अवधि में किसीकी टिप्पणी प्रकाशित होने में विलंब हो जाये तो निराश न हों, बीच में कुछ न कुछ प्रयास कर कम से कम टिप्पणी तो माडरेशन का काम तो करता ही रहूँगा।
3-1
शैदाई समझ कर जिसे था दिल में बसाया
कातिल था वही उसने मेरा कत्ल कराया।
3-2
दुनिया को दिखाने जो चला दर्द मैं अपने,
हर घर में दिखा मुझको तो दुख दर्द का साया।
3-3
किसको मैं सुनाऊँ ये तो मुश्किल है फसाना
दुश्मन था वही मैने जिसे भाई बनाया।
3-4
मैं कांप रहा हूँ कि वो किस फन से डसेगा,
फिर आज है उसने मुझसे प्यार जताया।
3-5
आकाश में उड़ता था मैं परवाज़ थी ऊँची,
पर नोंच मुझे उसने जमीं पर है गिराया।
3-6
गीतों में मेरे जिसने कभी खुद को था देखा,
आवाज मेरी सुन के भी अनजान बताया।
3-7
कांधे पे चढ़ा के उसे मंजिल थी दिखाई,
मंजिल पे पहुँच उसने मुझे मार गिराया।
शैदाई= चाहने वाला, पर = पंख, परवाज = उड़ान
दिनांक 15 मई तक ग़ज़ल चर्चा के लिये खुली है। आपके सुझाव आमंत्रित हैं
भाई साहिब पिछली पोस्ट पर मेरा कमेन्ट देख लें इस पर भी लिखती हूँ। धन्यवाद्
ReplyDeleteबहरो की संख्या इतनी अधिक है कि यह कह पाना यह बहर नही है मेरे मुताबिक गलत होगा,गज़ल विधा का एक विधान यह भी है कि एक या एक से अधिक अराकान की पुनरुक्ति कर गज़ल लिखी जा सकती है अत: हम केवल यह कह सकते हैं कि यह प्रचलित बह्र में नहीं है।
ReplyDeleteयह राइज बहर है. इसका वजन मफ़ऊल मुफाईलु मुफाईलु फऊलुन है. इस बहर में ही "सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है- तस्वीर बनाता हूँ तेरी खूने-जिगर से" जैसी गजलें फिल्मों में आईं. मिसरे के आखिर में फऊलुन की जगह मुफाईलु कर लेने की छूट है और ऐसा मतले के बाद मिसरा-ए-ऊला में भी नजर आया.
ReplyDeleteमेरा काम तो गया ना तिलक भाई!
@सर्वत साहब
ReplyDeleteआप आज़ाद कैसे हो सकते हैं इससे। बह्र निर्धारित करने का टेढ़ा काम आपने जरूर पूरा कर दिया है। ऐसा ही मार्गदर्शन आगे भी सभीको लगेगा इस ग़ज़ल पर।
कुछ ऐसी परिस्थिति बन गयी है कि अगले दो दिन बाहर रहने के कारण मैं शायद इंटरनैट से कटा रहूँ, कम से कम टिप्पणियॉं तो कोशिश कर माडरेट करता रहूँगा। अब जो टिप्पणियॉं इस बीच प्राप्त होती हैं उनपर आपको नज़र तो रखनी ही होगी।
मेरे लिये इस बह्र का नाम नया है।
हमको तो बहुत मसाला मिल रहा है सीखने के लिए ... आप सब का बहुत बहुत शुक्रिया ...
ReplyDeleteतिलक जी,
ReplyDeleteइस ग़ज़ल में मैं रदीफ़ और काफिया नहीं समझ पा रहा हूँ.
क्या ये बिना रदीफ़ की ग़ज़ल है?
-राजीव
सर्वत साहब बहर के जितने अच्छे जानकार हैं मैं उतना ही कच्चा हूँ. इसलिए बहर के बारे में कोई टिप्पणी नहीं करना ही मुनासिब समझता हूँ. कुलवंत जी की ग़ज़ल को पढ़ते पढ़ते जो गुनगुनाहट छलकी उसमें इस ग़ज़ल के हर शेर को फिट करने का प्रयास किया. ज्यादा तोड़-मरोड़ किये बिना जो शक्लो-सूरत उभर कर आयी वह पेश कर रहा हूँ. यह शक्ल अंतिम नहीं है और कुलवंत जी, तिलकजी तथा अन्य गुणीजन इसे सिरे से खारिज करने का अधिकार रखते है.
ReplyDelete३-१
जिसे मान अपना गले से लगाया
१२२१ २२ १२२१ २२
किया क़त्ल मेरा उसीने खुदाया
३-२
दिखाने चला जो मेरा दर्द सबको
वही दर्द घर-घर बसा मैंने पाया
३-३
किसे मैं कहूं मुश्किलों का फ़साना
जिसे भाई समझा वही था पराया
३-४
न जाने मुझे कब कहाँ (किस तरह) वो डसेगा
बहुत प्यार उसने अरे फिर (अभी है) जताया
३-५
बहुत तेज़ थी यार परवाज़ मेरी
बता क्यों मुझे नोंच कर पर गिराया
३-६
कभी गीत मेरे जिसे खूब भाये
उसीने मुझे गैर क्यों कर बताया
३-७
चढ़ा मंजिलें मुझको सीढ़ी बना कर
उसीने मुझे ठोकरों से गिराया
गुस्ताखी माफ़ !
तिलकजी !
ReplyDeleteमुझे पता है आज आप बहुत व्यस्त है. मेरी कल की पोस्ट भी पता नहीं आपने पढी कि नहीं. खैर, उसी क्रम में यह पोस्ट भी आपकी सेवा में भेज रहा हूँ. अच्छा होगा दोनों को एक साथ ही प्रकाशित करें. कल जो मैंने सुझाव दिया था उस बहर (?) का मात्रिक क्रम १२२१ २२ x २ नहीं बल्कि १२२ x ४ है. उसके दो उदाहरण भी मेरे ध्यान में आये हैं.
१. कोई पास आया सवेरे सवेरे
मुझे आजमाया सवेरे सवेरे
(इसे जगजीत सिंह जी ने गाया है)
२. बहुत याद आये भुलाते भुलाते
तुम्हें ज़िंदगी से मिटाते मिटाते
(इसे तलत अज़ीज़ ने गाया है)
शाम तक कोशिश करता हूँ इन दोनों के ऑडियो लिंक भेज दूं ताकि सब लोग इन खूबसूरत ग़ज़लों को सुनने का आनंद भी ले सकें.
सादर !
भाई, यह मैं ने राइज (प्रचलित) बहर लिखा था. आप उर्दू के शब्दों का ज्यादा प्रयोग करते हैं इस लिए मैं ने भी सोचा की उर्दूदां से उर्दू में वार्ता की जाए. लेकिन बिजली गिर पड़ी मुझ पर आपका कमेन्ट देखकर. भविष्य में आपसे उर्दू में बात कट.
ReplyDeleteहम सभी का पहला प्रयास यही होना चाहिए कि रचनाकार ने जिस बहर में शेर कहे हैं, वो बहर बरकरार रखी जाए. कवि कुलवंत एक एक जाना-माना नाम है, उन्हें बहरों का ज्ञान भी है. लिहाज़ा उनकी इस्तेमाल की गयी बहर को तोड़ने से क्या लाभ? क्या हम केवल विद्वता प्रदर्शित करने के लिए ऐसा करें? मैं, तिलक जी आप की शान में गुस्ताखी नहीं कर रहा हूँ, यह सिर्फ एक सवाल है जिसकी रोशनी में हमें गजलकारों की बेहतरी और इस ब्लॉग से लोगों का जुड़ाव दोनों ही बनाए रखने हैं.
ReplyDeleteदूसरी एक और बात जो मुझे जरूरी लगती है, वो यह है की हम यथासम्भव अशआर के मफहूम में तब्दीली उसी सूरत में करें, जब यह बेहद जरूरी हो. हाँ अगर फ़िक्र और ख्याल को ज्यादा बुलंदी मिलती है तो ऐसा किए जाने में कोई हर्ज नहीं.
इसके बावजूद, रचनाकार हम सबके मशवरों को कबूल करने या न करने के लिए आजाद तो है ही.
मैं ने कुलवंत जी की गजल को अपने हिसाब से, उसी, उन्हीं की बहर में रखने की कोशिश की है. पूरी गजल ही कुलवंत जी की है, कहीं कहीं थोड़ी सी तरमीम करने का प्रयास किया है--------------
शैदाई समझ कर जिसे था दिल में बसाया
कातिल था वही, उस ने मेरा कत्ल कराया
दुनिया को दिखाने जो चला दर्द मैं अपने
हर शख्स में दिखलाई पड़ा दर्द का साया
अफसाना सुनाऊँ तो सुनाऊँ भी मैं किस को
दुश्मन है वही, मैं ने जिसे भाई बनाया
मैं काँप रहा हूँ कि वो किस फ़न से डसेगा
आज उस ने करीब आ के बहुत प्यार जताया
आकाश में उड़ता था मैं, परवाज़ थी ऊंची
पर नोच के उस ने मुझे धरती पे गिराया
गीतों में मेरे जिस ने कभी देखा था खुद को
आवाज़ सुनी मेरी तो अनजान बताया
पहुँचाया था मंजिल पे जिसे कांधों पे अपने
मंजिल पे उसी ने मुझे नजरों से गिराया.
तिलक जी, मेरे ख्याल से शायद आप मेरी मेहनत से मुत्मइन होंगे. मेरी मजदूरी का ख्याल रखिएगा.
*** मैं ने फन को फ़न किया है.
सर्वत साहब की बात स्वत: स्पष्ट है और पूरी तरह सही है कि बह्र रदीफ़ और काफि़या और विचार वही कायम रहना चाहिये जो शायर ने रखा है, हॉं अगर इसमें कुछ ऐसा है जो काव्य सिद्धान्त से हटकर है तो स्पष्ट सुझाव आना चाहिये कि बदलाव क्यूँ हो। विचार बदल देने से एक नया शेर तो हो सकता है मगर सुझाव नहीं। नये शेर का सुझाव वहीं काम का होगा जहॉं प्रस्तावक शाइर ने मत्ला, मक्ता न कहा हो या 5 से कम शेर कहे हों।
ReplyDeleteसुझाव मुख्यत: काव्य सिद्धान्त, शिल्प, शब्द प्रयोग पर ही सीमित रहने चाहियें।
उद्देश्य स्पष्ट है कि वही शेर और अच्छे से कैसे कहा जा सकता है।
सर्वत साहब ने फन को फ़न क्यों किया है समझने का प्रयास करें इसमें कहन का एक खूबसूरत राज़ छुपा है। अगर किसी को समझ में न आये तो निस्संकोच पूछले।
मैं अब उपलब्ध हूँ। इस बीच जो टिप्पणियॉं प्राप्त हुईं उनमें जोगेश्वर जी ने जहॉं प्रस्तावित बह्र को खुद ही पहचान कर बह्रे मुतकारिब तय की और उसपर मूल ग़ज़ल की कहन को कायम रखते हुए पूरी ग़ज़ल कह डाली वहीं सर्वत साहब ने यही काम मूल बह्र कायम रखते हुए किया।
ReplyDeleteये दो उदाहरण स्पष्ट करते हैं कि एक परिपूर्ण शेर कहने के लिये सबसे जरूरी चीज होती है स्पष्ट विचार, इससे यह भी स्पष्ट है कि प्राप्त ग़ज़ल के शायर के विचार ग़ज़ल की कहन में स्पष्ट हो रहे हैं। ग़ज़ल के अशआर और पहेली के बीच अंतर होता है और ग़ज़ल कहते समय यह बात ध्यान में रखी जाना जरूरी होता है।
यह पहला अवसर है जब किसी रचनाकार की गज़ल पर चर्चा हो रही है और अभी तक उस रचनाकार के विचार या कथन उपलब्ध नहीं हैं. इस स्थिति में मुझे एक खौफ सता रहा है, कहीं ऐसा तो नहीं कि यह गज़ल बिना कुलवंत जी की जानकारी के आ गयी है. यदि ऐसा नहीं है तो कुलवंत जी को भी तो हम मूर्खों के समर्थन या विरोध में कुछ कहना चाहिए. तिलक जी का ब्लॉग तो कम्युनिटी सेंटर है लेकिन आयोजन के मुख्य आकर्षण कुलवंत जी आप ही हैं. आप की खामोशी हमें ऐसी सूरते-हाल में खड़ा कर रही है जहाँ हम खुद को बिन बुलाए मेहमान जैसी हालत में पा रहे हैं.
ReplyDeleteमेरी यह चिंता क्या वाजिब नहीं? हम तो अपनी विद्वता का लगातार प्रदर्शन करने के प्रयास कर रहे हैं और कुलवंत जी पूरे परिदृश्य से गायब. कुछ अजीब सा लग रहाहै.
तिलकजी !
ReplyDeleteशायद मुझसे बहुत बड़ी गुस्ताखी हो गयी. मैं कुलवंत जी के बारे में कुछ नहीं जानता. आज सर्वत जी की टिप्पणियाँ पढ़ कर पता चला कि वे खुद एक जाने माने शायर हैं. मैं कुलवंत जी से क्षमा याचना करते हुए अपनी सारी टिप्पणियाँ वापस लेता हूँ. वैसे भी मैं कई बार स्पष्ट कर चुका हूँ कि मैं उर्दू-फारसी की बहरों के बारे में कुछ नहीं जानता. फिर भी मैंने कुलवंत जी की ग़ज़ल के साथ जो जोर-आजमाइश की वह इसी धोखे में कर ली कि वे एक ऐसे शायर हैं जो ग़ज़ल पर नए नए हाथ आजमा रहे हैं.
एक शिकायत आपसे. इस ब्लॉग को शुरू करते समय आपने लिखा था कि यह ब्लॉग उन के लिए है जो ग़ज़ल कहना सीखना चाहते हैं. क्या कुलवंत जी ने यह ग़ज़ल इसी उद्धेश्य से भेजी थी ? इस प्रश्न का उत्तर अब स्वतः स्पष्ट है. तो फिर आपने इस ग़ज़ल को विचारार्थ स्वीकार क्यों किया ?
मैं बहुत ही दुखी मन से कह रहा हूँ कि इस ग़ज़ल पर ताबड़तोड़ टिप्पणियाँ करने के लिए मुझे बहुत अफसोस है. मैं आहत हूँ. आशा है कवि कुलवंत जी मुझे माफ़ करेंगे.
@Rajeev Bharol
ReplyDeleteआपके प्रश्न का उत्तर तो मैनें मेल पर दे ही दिया था कि इसमें काफिया आया, गाया, खाया आदि आयेंगे जिसमें अंत में 'या' हो तथा उसके पहले 'आ' स्वर हो। स्वाभाविक है कि भुनाया, सुझाया, मनाया, लगाया आदि भी काफि़या हो सकता है। रदीफ़ इसमें नहीं है।
@सर्वत साहब
आप उर्दू में वार्तालाप कट न करें, इस बहाने यदा-कदा उर्दू शब्दकोष तो देख ही लूँगा कुछ समझ न आने पर।
आपने फन को फ़न करके जो प्रभाव पैदा किया है, मेरी नज़र में तो बहुत उम्दा है.
इसमें कोई शक नहीं कि भाई कवि कुलवंत जी का पूरे परिदृश्य से गायब हो जाना कुछ अजीब सा लग रहा है लेकिन वो कहीं व्यस्त हो गये लगते हैं, उनसे कुछ जवाब नहीं मिल पा रहा है।
@जोगेश्वर गर्ग जी
मेरे मत में आपसे कोई गुनाह नहीं हुआ है, आपने बस अपना विचार रखा है, अपने सुझाव रखे हैं, इसमें ग़लत क्या है? अस्ल में आपने जो बात कही है वही बात है जिसके कारण कई लोग ग़ज़ल पर अपने विचार रखने में संकोच कर रहे हैं।
यह ब्लॉग निश्चित ही उन के लिए है जो ग़ज़ल कहना सीखना चाहते हैं. मैनें यह बात बार-बार कही है कि ग़ज़ल कहना एक सतत् अभ्यास है और जिसका अभ्यास ठहर गया उसकी कहन ठहर गयी। कुलवंत जी ने यह ग़ज़ल चर्चा आमंत्रित करने के स्पष्ट उद्धेश्य को जानते हुए भेजी थी? कभी और कोई ग़ज़ल नहीं मिली तो आप मेरी ग़ज़लें भी चर्चा के लिये यहॉं पा सकते हैं। यह कवि कुलवंत जी की खुली सोच है कि उन्होंने इस पर चर्चा कर ऐसी टिप्पणियॉं आमंत्रित करीं जो इक्का दुक्का टिप्पणीकारों को छोड़ दें तो अन्यथा कोई नहीं देता। सामान्यतय: वाह-वाही के सिवाय कुछ नहीं मिलता टिप्पणियों में। आपको आहत महसूस करने की कोई जरूरत नहीं है।
@ गर्ग साहब,
ReplyDeleteआपने जो कमेन्ट दिए, सच्चे मन से दिए. उन्हें वापस लेने की जरूरत बिलकुल भी नहीं. आपसे मैं भी वाकिफ नहीं था, इसी बहाने परिचय हो गया. जो भी रचनाकार अपनी कृति इस ब्लॉग पर परीक्षण के लिए भेजता है, उसे इन सब के लिए तैयार होना चाहिए. यह कतई जरूरी नहीं कि नौसिखियों की ही गजलें इस ब्लॉग पर पोस्ट मार्टम के लिए आएं. यदि लोग नहीं आते तो हम सब मिलकर मुफलिस, नीरज, श्रद्धा जैन, शाहिद
मिर्ज़ा, इस्मत जैदी, राजरिशी गौतम, वीनस केशरी, अर्श, श्याम सखा श्याम, सिंह एसडीएम साहिबान से दरख्वास्त करके उनकी रचनाओं से खुद भी सीखने का प्रयास करेंगे.
यदि कोई नहीं मिलता, फिर तिलक जी तो हैं ही. उन पर ही निशाना साधा जाएगा. और अंत में प्रार्थी भी बख्शा नहीं जाएगा.
लिहाज़ा जो बोलें, बिंदास बोलें, संकोच की इस ब्लॉग पर कोई जरूरत नहीं.
@ तिलक जी, मैं कुछ जियादा तो नहीं बोल गया.
@सर्वत साहब
ReplyDeleteआप तो बोलिये जी बिंदास बोलिये। इस परिपक्व उम्र में भी आदमी नहीं बोलेगा तो कब बोलेगा। दुनियावालों की मैं नहीं जानता, मैं स्वयं खरी बात करने वालों को ही विश्वसनीय मानता हूँ।
खुलकर स्वस्थ चर्चा करने से सेहत ठीक रहती है। हम 50 से उपर वालों को अब सेहत ही तो बचा कर रखनी है।
सर्वत जी और तिलकजी का आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे अपराधबोध से उबरने में मदद की और हौसला अफजाई की. सर्वत जी द्वारा की गयी इस ग़ज़ल की बहर की व्याख्या मुझे समझ में आ गयी है.
ReplyDeleteआभार !
ग़ज़ल पर अदीब लोगों की राए पढी
ReplyDeleteउलझाव/सुलझाव सभी कुछ काबिल-ए-ज़िक्र है
लेकिन एक बात और है जो काबिल-ए-गौर है
किसी भी तरह की बहस करते वक्त ये सोचना/जान लेना
बहुत ज़रूरी है क ख़ालिक़ की क्या राए है
कवी कुलवंत जी किसी भी तरह स किसी परिचय के मुहताज नहीं हैं
एहल-ए-अदब में वो एक बहुत ही पुख्ता दस्तखत तस्लीम किये जाते हैं
जब ज़बान-ओ-बयान उनका है , ग़ज़ल उनकी है
तो उनकी इजाज़त ले लेना निहायत ज़रूरी है
आखिर....आखिरी फैसला तो उन्ही का ही होना चाहिए ना !!
तो.....तिलक जी से गुजारिश है कि
कवी कुलवंत जी को कुछ कहने के लिए इसरार करें, इल्तेजा करें
@मुफलिस जी
ReplyDeleteकवि कुलवंत जी को मैं मेल से भी निवेदन कर चुका हूँ। कुछ समझ नहीं आ रहा। मेरा तो मानना यह है कि वो किसी कारण से इंटरनैट से दूर हैं और न तो यह ब्लॉग देख पा रहे हैं न ही मेल चैक कर पा रहे हैं।
यदि कुलवंत जी इस प्रोजेक्ट में रूचि नहीं ले रहे हैं, फिर हमें इस पोस्ट का पटाक्षेप कर देना चाहिए. मुझे पहले भी कुछ गलत महसूस हुआ था और इसी लिए मैं ने अपना संदेह दर्ज कराया था.
ReplyDeleteयूं भी, गजल पर जो काम होना था, वो पूरा हो चुका है.
अब किसी अन्य रचनाकार, जो खुद को कसौटी पर चढ़ाने को तैयार हो, लाया जाए. कोई न हो तो तिलक जी खुद या सदस्यों में से जिसे मुनासिब समझें, पेश करें.
मेरे पास अब कुलवंत जी के लिए कुछ नहीं बचा.
अभी मेरे पास चर्चा के लिये आई दो ग़ज़लें बची हैं। एक आज ही लग जायेगी। एक अगले रविवार को।
ReplyDeleteMany Many thanks dear dear dear friends...
ReplyDeleteI am so sorry.. for not coming here... I was away and too vusy in my office schedule...
aaj aap savi mitron ke mail padhe...saVhi ke cdomments padhe..
dil vhar aaya.. vahut achcha laga...
aap sav kaa haardik avhaar.... naman...
aap savhi ka itna pyaar paakar dil gadgad ho gaya.. meri taraf se deri.. deri aur atyadhik deri ke liye dheron kshama yachnayen...
Ghazal ki aher hai
ReplyDelete2-2-1 1-2-2-1 1-2-2-1 1-2-2\1-2-2-1
ahare Hazaz Musamma, Akhrav, Makphoof, Mahzoof\Maksoor
Mere paas to sirf ek pustak hai zisme vehar aadi dekh kar Gazal likhata hu.
The vook is 'Gazal Lekhan Kala' vy 'Aadarniya shri R P. Sharma Maharshi'
is vehar ka zikra vhi us pustak me hai..
mai vehar ka zaankaar nahi hun...
aap savhi se punah ek vaar kshamaa yachana karte huye...
ReplyDeletesaadar
kulwant singh..
Rajeev ji yeh via radif ki gazal hai..
ReplyDeleteSarvat sahav aur Tilak Raj Kappor ji ki saarthak tipaniyan padh kar man khushi se chahak raha hai..
ReplyDeleteमुसम्मन् अखरब मक्फूफ महजूफ का एक रूप है मफ्ऊलु, मफाईलु, मफाईलु, फऊलुन् या 221, 1221, 1221, 122 दूसरा रूप है मफ्ऊलु, मफाईलु, मफाईलुन्, फऊलुन् या 221, 1221, 1222, 122।
ReplyDeleteबहरहाल मेरा पिया घर आया जैसी हालत है। कवि कुलवंत जी लौट आये हैं। उनकी ग़ज़ल पर जो सुझाव आने थे आ ही चुके हैं। अब वो अपनी ग़ज़ल को कौनसा अंतिम रूप देते हैं देखना शेष बचा है। आज रात नयी ग़ज़ल भी चर्चा के लिये लगनी है।
@कवि कुलवंत जी
आप जो भी अंतिम रूप दें ग़ज़ल को, उस रूप में सभी देखना चाहेंगे, यहीं या आपके ब्लॉग पर, यह आप पर ही निर्भर करेगा।
गर्ग साहब मैं भी नौसिखिया ही हूँ... और आप क्षमा शब्द का बार बार प्रयोग कर मुझे शर्मिंदा क्यों कर रहे हैं.. ऐसी बेबाक टिप्पणियों से ही अंतर्मन के आइने सा साफ होना का पता लगता है.. दूसरे इसी तरह हम लोग एक दूसरे से कुछ सीख सकते हैं...
ReplyDeleteयही स्वस्थ परंपरा है... गज़ल में इतनी बारीकियां हैं कि सीखते सीखते वर्षों लग जायें फिर भी अपने आप को कोई मास्टर नही कह सक्ता इसमें... आप सभी का प्रिय..सादर कुलवंत सिंह
बहर - 221, 1221, 1221, 122 / 1221
ReplyDeleteशैदाई समझ कर जिसे था दिल में बसाया
कातिल था वही उसने मेरा कत्ल कराया।
दुनिया को दिखाने जो चला दर्द मैं अपने,
घर घर में दिखा मुझको तो दुख दर्द का साया।
किसको मैं सुनाऊँ ये तो मुश्किल है फसाना
दुश्मन था वही मैने जिसे भाई बनाया।
मैं कांप रहा हूँ कि वो किस फन से डसेगा,
फिर आज है उसने मुझसे प्यार जताया।
इस शेर में शब्द ’मुझसे’ 1,1,2 लिया गया है, जो कि तकनीकी रूप से गलत है; मुझसे - 2,2 होता है...
आकाश में उड़ता था मैं परवाज़ थी ऊँची,
पर नोंच मुझे उसने जमीं पर है गिराया।
3-6
गीतों में मेरे जिसने कभी खुद को था देखा,
आवाज मेरी सुन के भी अनजान बताया।
3-7
कांधे पे चढ़ा के उसे मंजिल थी दिखाई,
मंजिल पे पहुँच उसने मुझे मार गिराया।
सादर
kavi kulvant jee kee gazal kee carcha me bahut kluch seekhaa sarvat bhai saahib aur kapoor bhaai sahib kaa dil se shukriya jo ham jaise logon ke seekhane ke liye raastaa khol diyaa dhanyavaad aur shubhakaamanaayen
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