Sunday, July 18, 2010
'मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ' - अंतिम किस्त
निर्मला कपिला जी की ग़ज़ल
दर्द आँखों से बहाने निकले
गम उसे अपने सुनाने निकले।
रंज़ में हम से हुआ है ये भी
आशियां खुद का जलाने निकले।
गर्दिशें भूल भी जाऊँ लेकिन
रोज रोने के बहाने निकले।
फि़र से मुस्कान की नकाबों में
जो जलाया था, बुझाने निकले।
आप किन वायदों की ताकत पर
उनसे ये शर्त लगाने निकले।
प्यार क्या है नहीं जाना लेकिन
सारी दुनिया को बताने निकले।
तुमने रिश्ता न निभाया कोई
याद फिर किस को दिलाने निकले।
झूम कर यूँ कभी उमडे बादल
ज्यूँ धरा कोई सजाने निकले।
यूँ किसे दुख नहीं है दुनियाँ मे
आप ये किसको सुनाने निकले।
आप गठरी को बॉंध पापों की
क्यूँ त्रिवेणी पे नहाने निकले।
और अब अंत में सर्वत साहब की ग़ज़ल:
सच ही सुनता हूँ, सच सुनाता हूँ
और मैं रोज़ मुंह की खाता हूँ
भाईचारा,समाज, मजहब, अम्न
अब इन्हें मुंह नहीं लगाता हूँ
मैं भिखारी हुआ तो इस पर भी
लोग बोले, बहुत कमाता हूँ
मेरे बाजू ही मेरी दुनिया हैं
अपनी किस्मत का खुद विधाता हूँ
आप तहजीब की तलाश में हैं
चलिए, मैं भी पता लगाता हूँ
जीत जाते हैं लोग दुश्मन से
दोस्तों से मैं हार जाता हूँ
मुझ पे भी ध्यान दो कभी 'सर्वत'
मैं तुम्हारा उधार खाता हूँ
आपके सुझाव आमंत्रित हैं।
Sunday, July 4, 2010
शिव कुमार 'साहिल' की ग़ज़ल
पिछली ग़ज़ल थी श्री के.के.सिंह 'मयंक' की जो लखनऊ में रहते हैं, ये ग़ज़ल सर्वत साहब के माध्यम से मिली थी।
इस बार की ग़ज़ल प्राप्त हुई है शिव कुमार "साहिल " जी से जो हिमाचल प्रदेश के छोटे से गांव गुरुप्लाह, जिला - ऊना के निवासी हैं। कहते हैं कि अभी ग़ज़ल कि बारीकियों व तकनिकी पक्ष से नवाकिफ हैं, सीखने क़ी कोशिश में लगे हैं।
ग़ज़ल
वो कहानी मेरी सुनाता है
इस तरह गम को वो सुलाता है।
ढूंढता है मुझे अकेले में
जब मिले तो नज़र चुराता है
आ गया है उसे हुनर ये भी
मुस्कुराहट में ग़म छुपाता है।
भूल जाता हूँ खुद को मैं साकी
तू ये पानी में क्या मिलाता है।
जब कभी दिल जला तो आँखों से
गर्म पानी छलक ही जाता है।
कोई भी घर में अब नही रहता
बंद दर सब को ये बताता है
चाँद बैठा हुआ है पहरे पर
कौन तारे यहॉं चुराता है?
आपके सुझावों का स्वागत है।
Sunday, June 13, 2010
'मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ' की बह्र पर एक और ग़ज़ल चर्चा के लिये।
पिछली पोस्ट पर इंद्रनील भट्टाचार्जी की ग़ज़ल चर्चा के लिये लगाई गयी थी। इस बार की ग़ज़ल के साथ मैं शाईर का नाम नहीं दे रहा हूँ यह नाम अगली पोस्टमें ही बताया जायेगा । नाम जाहिर न हो सके इसलिये मक्ते के शेर में शाइर का नाम गायब कर दिया गया है। इस ग़ज़ल में मूल रदीफ़ काफि़या कायम रखा गया है। सीखने वाले शाइरों के लिये इसमें बहुत कुछ है।
पहले सजदे में सर झुकाता हूँ
फिर दुआ को मैं हाथ उठाता हूँ
गम उठाता हूँ, मुस्कुराता हूँ
यूं भी दुनिया को मुंह चिढ़ाता हूँ
इतने कांटे चुभोए हैं सब ने
फूल छूने से खौफ खाता हूँ
दुश्मनों को अगर मिलें खुशियाँ
जीती बाजी भी हार जाता हूँ
काविशों पर है एत्माद मुझे
शर्त लेकिन नहीं लगाता हूँ
सबकी खुशियों का जब सवाल आए
अपनी खुशियों को भूल जाता हूँ
दिल में जब भी घना अँधेरा हो
मैं खुदी का दिया जलाता हूँ
आग तो आप ही लगाते हैं
आग मैं तो नहीं लगाता हूँ
प्यार करता हूँ दुश्मनों को भी
इस तरह दुश्मनी निभाता हूँ
दोस्तों की अलग है बात मगर
दुश्मनों से भी मैं निभाता हूँ.
आपकी सार्थक टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहेगी।
Sunday, June 6, 2010
इंद्रनील भट्टाचार्जी की ग़ज़ल चर्चा के लिये
अब तक इस ब्लॉग पर पॉंच ग़ज़लें चर्चा के लिये लगीं और मुझे यह स्वीकारने में कोई झिझक नहीं कि इन पॉंच ग़ज़लों से कोई स्पष्ट दिशा नहीं मिल सकी। कारण मुख्यत: यह रहा कि कोई खुलकर व्यक्त नहीं होना चाहता विशेषकर जब किसी की कही हुई ग़ज़ल पर प्रशंसा न करते हुए कुछ ऐसा कहना हो जो सही तो हो लेकिन ग़ज़ल कहने वाले को सहज स्वीकार्य होने की संभावना कम हो।
नये शाइरों ने शायद आत्मविश्वास की कमी के कारण नहीं कहा और कहने का दायित्व अनुभवी शाइरों पर छोड़ दिया। अनुभवी लोगों ने अपने विचार कुछ हद तक व्यक्त तो किये लेकिन जिनकी ग़ज़लों पर चर्चा हो रही थी उन्होंने यह समझने का प्रयास नहीं किया कि जो सलाह आयी है उसके पीछे कारण क्या है।
पॉंच में से तीन ग़ज़ल कहने वाले ऐसे थे जो पहले से ग़ज़ल कह रहे हैं, स्वाभाविक है कि उनकी ग़ज़ल में काफि़या दोष और कहन पर ही कुछ कहा जा सकता था। दो ग़ज़लें जिस हालत में प्राप्त हुई थीं उस हालत में उन्हें ग़ज़ल कहना मुश्किल था और चर्चा में नहीं लिया जा सकता था लेकिन बात जब सीखने सिखाने की हो तो सीखने वालों को यह भी तो मालूम होना चाहिये कि ग़ज़ल की आधार आवश्यकतायें क्या होती है और यह समझने के लिये अग़ज़ल से बेहतर उदाहरण क्या हो सकता है।
इन दो अग़ज़लों मे से पहली संदेश दीक्षित की थी जो पूरी चर्चा के दौरान मूक दर्शक बने रहे और बाद में भी समय नहीं निकाल पाये। इंद्रनील भट्टाचार्जी की ग़ज़ल भी पहले तो अग़ज़ल के रूप में ही प्राप्त हुई थी लेकिन वो ई-मेल पर चर्चा कर निरंतर उस पर कार्य करते रहे और चर्चा के लिये लगने तक ग़ज़ल को ऐसा रूप दे सके कि उस पर चर्चा हो सके।
टिप्पणी देने की झिझक को देखते हुए मैनें अंतिम ग़ज़ल की शाइरा का नाम नहीं दिया यह ग़ज़ल प्राप्त हुई थी निर्मला कपिला जी से। इनकी ग़ज़ल जिस रूप में प्राप्त हुई थी वह ठीक तो थी लेकिन बह्र बहुत कठिन हो रही थी इसलिये उन्हें बह्र पर कुछ आरंभिक सुझाव देकर आंशिक बदलाव जरूरी हो गया था।
इंद्रनील भट्टाचार्जी और निर्मला कपिला जी की ग़ज़लों में न्यूनतम आवश्यक सुझाव मैनें दिये अवश्य लेकिन काफि़ये और कहन में कोई बदलाव नहीं किया जिससे ग़ज़ल का मूल स्वरूप बना रहे।
पूरे दौर में सर्वाधिक सक्रिय रहे सर्वत साहब और फिर जोगेश्वर गर्ग साहब। प्राण शर्मा जी ने आवश्यकतानुसार तकनीकि बिन्दुओं पर अपना मार्गदर्शन दिया। मुफलिस साहब, नीरज भाई, शाहिद भाई और गौतम राजरिशी की व्यस्तताओं ने उन्हें बहुत समय नहीं देने दिया मैं आशा करता हूँ कि अब वो समय अवश्य निकाल पायेंगे।
किसी के शेर पर समीक्षात्मक टिप्पणी देना अथवा नहीं देना व्यक्तिगत अधिकार है लेकिन नये शाईरों ने इस विषय में संकोच नहीं करना चाहिये। क्या होगा, ज्यादह से ज्यादह लोग हँसेगे कि क्या बेवकूफ़ी भरी टिप्पणी दी है; इस ब्लॉग पर कमसे कम एक लाभ तो होगा कि जब आपकी टिप्पणी की काट आयेगी तो आपको और अधिक विषय स्पष्टता प्राप्त होगी, साथ ही उन्हें भी प्राप्त होगी जो आपकी टिप्पणी और उसपर प्राप्त प्रति-टिप्पणी पढ़ेंगे।
सर्वत साहब ने एक तरहीनुमा हल सुझाया है उसपर काम चालू कर दिया है और उसकी सूचना पिछली पोस्ट में दे ही दी थी। यह तरहीनुमा इसलिये है कि इसमें रदीफ़ काफि़या का बंधन नहीं रहेगा, केवल बह्र का पालन करना होगा। अभी तक चार ग़ज़लें प्राप्त हुई हैं जिनमें से पहली ग़ज़ल आज प्रस्तुत है।
'मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ' की बह्र पर इंद्रनील भट्टाचार्जी की ग़ज़ल चर्चा के लिये:
दिल जिसे हर घडी बुलाता है
जानकर वो जिया जलाता है
प्यार से हाथ फिर मिलाया है
ऐसे ही वो मुझे डराता है
भूल जाये भले ही जख्मों को
याद से पैरहन सिलाता है
पास वो आजकल नहीं आता
दूर से हाथ बस हिलाता है
रात भर जाग कर जो ख्वाब बुने
भोर होते ही भूल जाता है।
उसको लहरों से डर नहीं लगता
रेत पर वो महल बनाता है।
‘सैल’ उसकी अदा निराली है
हार कर वो मुझे हराता है
Sunday, May 23, 2010
एक नयी ग़ज़ल चर्चा के लिये
कदम-दर-कदम पर चर्चा के लिये पहले से प्राप्त ग़ज़लों में से एक ग़ज़ल बची हुई है इसकी घोषणा तो पिछली पोस्ट में कर ही दी थी। इस बार शाईर/शाईरा का नाम नहीं दिया जा रहा है जिससे चर्चा खुली हो। हॉं इतना जरूर कह सकता हूँ कि यह ग़ज़ल मेरी नहीं है न ही सर्वत साहब की। ग़ज़ल बह्र में भी लग रही है। मेरा अनुरोध है कि इसपर अपने विचार खुलकर रखें। जो प्रारंभिक 5 ग़ज़लें चर्चा के लिये प्राप्त हुई थीं वो इस के साथ समाप्त हो रही हैं।
अब आगे की व्यवस्था इस प्रकार निर्धारित की गयी है कि बह्र, रदीफ़, काफि़या पहले से दे दिया जायेगा इस छूट के साथ कि शाईर चाहें तो रदीफ़ और काफि़या बदल कर भी ग़ज़ल कह सकते हैं। ऐसा करने से चर्चा के लिये प्राप्त होने वाली गुणवत्ता में सुधार होगा ऐसी अपेक्षा है।
आपने स्वर्गीय दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल पढ़ी/सुनी होगी।
'मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ।
तू किसी रेल सी गुजरती है,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ।
एक बाज़ू उखड़ गया जबसे
और ज्यादह वज़न उठाता हूँ।'
इसकी बह्र है बह्रे-खफीफ मुसद्दस् मख्बून मक्तुअ या बह्रे-हजज मुसद्दस् अस्तर जिसके अरकान हैं
फ़ायलुन् फ़ायलुन् मफ़ाईलुन् या 212 212 1222
सीमित संपर्क दायरें में यह सूचना ई-मेल से पूर्व में ही दे दी गयी थी और उसपर कुछ ग़ज़लें प्राप्त भी हो चुकी हैं।
इस बह्र पर चर्चा के लिये कोई भी अपनी ग़ज़ल भेज सकता है जब तक आती रहेंगी चर्चा चलती रहेगी। कहने वाले को छूट रहेगी कि चाहे तो रदीफ़ काफि़या भी बदल सकते हैं लेकिन बह्र का पालन तो करना ही है।
अब इस बार की ग़ज़ल जिसपर चर्चा आमंत्रित है:
बह्र है; बह्रे रमल मुसम्मन् महजूफ
फायलातुन्, फायलातुन्, फायलातुन्, फायलुन् 2122 2122 2122 212
बढ़ रहे हैं फासिले इन्सान से इन्सान के
रह गये क्या मायने अब दीन-औ-ईमान के।
बेइमानों और झूठों की ही हर-सू धाक है
गीत गाता कौन सच्चे और इक गुणवान के।
गम मुझे कोई न दुनिया के रुला पाये कभी
दर्द जो तुमने दिये दुश्मन बने हैं जान के।
आशियाँ तो लुट गया इक बेवफा के हाथ में
कौन जाने दिन फिरेंगे या नहीं नादान के।
हाथ से अपने उजाड़ा हो किसी ने घर अगर
क्या बतायेगा किसी को हाल बीयाबान के।
चल दिया था जो किनारा कर घड़ी में दर्द की
आज वो है दर्द में तो क्या करें पहचान के।
वेद ग्रंथों मे पढा था एक है परमात्मा
देखिये तो रूप कितने हो गये भगवान के।
Sunday, May 16, 2010
इंद्रनील भट्टाचार्जी की ग़ज़ल पर चर्चा
कवि कुलवंत जी की ग़ज़ल पर चर्चा समाप्त हो चुकी है, विधिवत् समापन अभी नहीं हुआ है, उसके लिये समापन आलेख की जरूरत है। चर्चा में सर्वत साहब के योगदान को देखते हुए मैं चाहूँगा कि यह कार्य वही सम्हालें। तदनुसार उनसे अनुरोध है।
इस पोस्ट की ग़ज़ल इंद्रनील भट्टाचार्जी से प्राप्त हुई है जो अभी ग़ज़ल कहने में नये हैं। 'सैल' उपनाम से लिखते हैं। इनके मामले में भी पहली समस्या बह्र निर्धारित करने की ही है जो 17 मई तक की जाना आवश्यक है जिससे बात आगे बढ़े। रदीफ़ काफि़या तो इसमें है ही। इनके अशआर में सुझाव के साथ-साथ दो एक शेर और आ जायें तो मज़ा आ जाये। अब तक जो ग़ज़लें मेरे पास आई हैं चर्चा के लिये उनमें से एक और बची है अगले सप्ताह के लिये। उसके बाद मेरा विचार है कि ग़ज़ल चर्चा के लिये प्रस्तुत करते समय शाइर का नाम नहीं दिया जाये जिससे चर्चा में जो खुलकर विचार व्यक्त नहीं कर रहे हैं वो भी खुलकर विचार रखें। शाइर का नाम आ जाने से संकोच की स्थिति बनती दिख रही है जो स्वस्थ नहीं है।
चर्चा के लिये प्रस्तुत ग़ज़ल
4-1
कुछ हिन्दू, कुछ मुसलमान, कुछ सिक्ख ईसाई, सम्हल चलो !
ये बस्ती नहीं इंसानों की, तुम जान बचाकर निकल चलो !!
4-2
तुम ऊँचे ओहदे पर होगे, पर दफ्तर घर के करीब तो है !
क्यूँ हमेशा चलना है गाड़ी से, तुम भी कभी पैदल चलो !!
4-3
जम गयी है सोच अब, नहीं आता नया ख्याल कोई !
ढूंढ आते हैं अश'आर कुछ, आते हैं थोडा टहल चलो !!
4-4
कुछ अरमान है, थोड़े से आंसूं, और एक तस्वीर है !
सपनों की वादियों में करते हैं तामीर महल चलो !!
4-5
ग़म भुलाने के लिए 'सैल' ये तरीका अच्छा है बहुत !
बातें यूँ ही दो चार करलें, दिल जायेगा बहल चलो !!
Sunday, May 9, 2010
कवि कुलवंत की ग़ज़ल पर चर्चा-1
पिछली बार चर्चा के लिये प्राप्त ग़ज़ल पर अभी काम पूरा नहीं हो पाया है। संदेश दीक्षित जी ने उनकी व्यस्तता के कारण कुछ समय चाहा है। वह ग़ज़ल अभी लंबित रखते हुए काम आगे बढ़ाते हैं।
इस बार चर्चा के लिये प्राप्त ग़ज़ल:
प्रस्तुत ग़ज़ल कवि कुलवंत सिंह जी से प्राप्त हुई है जो किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं, लगभग सभी हिन्दी ब्लॉग्स पर प्रकाशित हो चुके है, अपना ब्लॉग भी चलाते हैं।
ग़ज़ल की बह्र उनके द्वारा अनुमान से यह बताई गयी है:
221, 1221, 1221, 1221; मफ़ऊलु, मफ़ाईलु, मफ़ाईलु, मफ़ाईलु।
यह कोई ज्ञात बह्र नहीं है अत: सबसे पहले तो इसकी बह्र निर्धारित की जाना जरूरी है जिससे सभी सुझाव किसी निश्चित बह्र पर हों। यह दायित्व किसी को तो लेना ही होगा।
मैं कुछ अपरिहार्य कारणों से दिनांक 10 मई दोपहर बाद से दिनांक 13 मई सुब्ह तक इंटरनैट नियमित रूप से चैक नहीं कर पाउँगा इसलिये विशेष अनुरोध है कि कृपया इस अवधि में किसीकी टिप्पणी प्रकाशित होने में विलंब हो जाये तो निराश न हों, बीच में कुछ न कुछ प्रयास कर कम से कम टिप्पणी तो माडरेशन का काम तो करता ही रहूँगा।
3-1
शैदाई समझ कर जिसे था दिल में बसाया
कातिल था वही उसने मेरा कत्ल कराया।
3-2
दुनिया को दिखाने जो चला दर्द मैं अपने,
हर घर में दिखा मुझको तो दुख दर्द का साया।
3-3
किसको मैं सुनाऊँ ये तो मुश्किल है फसाना
दुश्मन था वही मैने जिसे भाई बनाया।
3-4
मैं कांप रहा हूँ कि वो किस फन से डसेगा,
फिर आज है उसने मुझसे प्यार जताया।
3-5
आकाश में उड़ता था मैं परवाज़ थी ऊँची,
पर नोंच मुझे उसने जमीं पर है गिराया।
3-6
गीतों में मेरे जिसने कभी खुद को था देखा,
आवाज मेरी सुन के भी अनजान बताया।
3-7
कांधे पे चढ़ा के उसे मंजिल थी दिखाई,
मंजिल पे पहुँच उसने मुझे मार गिराया।
शैदाई= चाहने वाला, पर = पंख, परवाज = उड़ान
दिनांक 15 मई तक ग़ज़ल चर्चा के लिये खुली है। आपके सुझाव आमंत्रित हैं