बात खुलकर सामने नहीं आ रही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहीं मर्यादाओं में दब गयी है। हमारे संस्कार शायद ऐसा ही कहते हैं लेकिन इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि जब तक प्रश्न नहीं उठते गुत्थियॉं नहीं खुलती। नये शाइरों की जो ग़ज़लें आती हैं उनमें मुख्य समस्या बह्र की देखने में आ रही है इसलिये मुझे लग रहा है कि अब समय आ गया है जब अथ-कथित पर एक पोस्ट लग ही जाना चाहिये जो मात्रिक गणना पर केन्द्रित हो। अगले सप्ताह तक शायद यह संभव हो सके। मेरे पास जो दो ग़ज़लें शेष हैं उनमें से एक है निर्मला कपिला जी की और दूसरी सर्वत साहब की। दोनों परिचय के मोहताज नहीं हैं। निर्मला जी ग़ज़ल में अभी स्वयं को शिक्षार्थी मानती हैं इस नजरिये से उन्होंने बह्र चुनने में आंशिक छूट चाही थी। उनकी ग़ज़ल 'मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ' की बह्र पर भी हो सकती थी ऐसा मेरा मानना है, लेकिन पूर्व अनुमति को देखते हुए अब उनकी ग़ज़ल मुकम्मल है कि नहीं इतना ही देख लेते हैं आप सबकी राय से। निर्मला जी सुझावों को सहृदयता व खिलाड़ी भावना से लेती हैं अत: सुझाव खुलकर व्यक्त करें।
निर्मला कपिला जी की ग़ज़ल
दर्द आँखों से बहाने निकले
गम उसे अपने सुनाने निकले।
रंज़ में हम से हुआ है ये भी
आशियां खुद का जलाने निकले।
गर्दिशें भूल भी जाऊँ लेकिन
रोज रोने के बहाने निकले।
फि़र से मुस्कान की नकाबों में
जो जलाया था, बुझाने निकले।
आप किन वायदों की ताकत पर
उनसे ये शर्त लगाने निकले।
प्यार क्या है नहीं जाना लेकिन
सारी दुनिया को बताने निकले।
तुमने रिश्ता न निभाया कोई
याद फिर किस को दिलाने निकले।
झूम कर यूँ कभी उमडे बादल
ज्यूँ धरा कोई सजाने निकले।
यूँ किसे दुख नहीं है दुनियाँ मे
आप ये किसको सुनाने निकले।
आप गठरी को बॉंध पापों की
क्यूँ त्रिवेणी पे नहाने निकले।
और अब अंत में सर्वत साहब की ग़ज़ल:
सच ही सुनता हूँ, सच सुनाता हूँ
और मैं रोज़ मुंह की खाता हूँ
भाईचारा,समाज, मजहब, अम्न
अब इन्हें मुंह नहीं लगाता हूँ
मैं भिखारी हुआ तो इस पर भी
लोग बोले, बहुत कमाता हूँ
मेरे बाजू ही मेरी दुनिया हैं
अपनी किस्मत का खुद विधाता हूँ
आप तहजीब की तलाश में हैं
चलिए, मैं भी पता लगाता हूँ
जीत जाते हैं लोग दुश्मन से
दोस्तों से मैं हार जाता हूँ
मुझ पे भी ध्यान दो कभी 'सर्वत'
मैं तुम्हारा उधार खाता हूँ
आपके सुझाव आमंत्रित हैं।
Sunday, July 18, 2010
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तिलकजी,
ReplyDeleteदोनों ही ग़ज़लें बहुत अच्छी हैं.
अथकथित पर नई पोस्ट का इंतज़ार है.
प्रणाम.
राजीव
मेरे बाजू ही मेरी दुनिया हैं
ReplyDeleteअपनी किस्मत का खुद विधाता हूँ
जीत जाते हैं लोग दुश्मन से
दोस्तों से मैं हार जाता हूँ |
सर्बत भाई साहिब तो गज़ल उस्ताद हैं, भला मेरे जैसे नौसिखिये उस पर क्या कह सकते हैं। मुझे पूरी गज़ल बहुत अच्छी लगी। भाई साहिब को बधाई और मेरी विनती है कि मेरी गज़ल पर खुल कर कहें बेबाक प्रतिक्रिया हमेशा मुझे प्रोत्साहन देती है। तिलक भाई साहिब का बहुत बहुत धन्यवाद। फिर आती हूँ।
सिर्फ निर्मला जी गजल पर कुछ कहूँगा. अपनी तो यूंही आपके आग्रह पर भेज दी थी. अब उसे खराद पर चढ़ाने का काम आप और बाकी लोगों का है.
ReplyDeleteनिर्मला जी मूलतः गजल नहीं कहतीं, वो कथा-उपन्यास की दुनिया में एक भारी भरकम नाम हैं. गजल उन्हें आकर्षित कर रही है और वह इस विद्या में रूचि ले रही हैं, यह हम गजलकारों के लिए गर्व की बात है.
गजल के कथ्य, अर्थ, बुनावट, बनावट आदि पर मुझे कुछ नहीं कहना. मैं तो निंदक नियरे राखिए वाले फार्मूले पर अमल कर रहा हूँ.
१- आशियाँ खुद का... खुद का की जगह अपना ज्यादा बेहतर होता.
२- गर्दिशें भूल...गर्दिशें भूल गया था फिर भी, होता तो शेर ज्यादा अच्छा लगता.
३- मूल बहर, जिसमें यह गजल निर्मला जी ने कही, उसकी मात्रिक गणना २१२२११२२२२ है. कुछ मिसरे इसकी बजाए २१२२१२१२२२ में हो गए हैं. मेरी निगाह में चार मिसरे दूसरी बहर में प्रवेश करते नजर आए:
*फिर से मुस्कान की नकाबों में
*आप किन वायदों की ताकत पर
*यूं किसे दुःख नहीं है दुनिया में
*आप गठरी को बाँध पापों की
मैं शपथ लेता हूँ कि जो भी बताया, मन से बताया, कोई दुराव, ईर्ष्या, जलन की भावना मुझ में नहीं थी.
निर्मला जी और कपूर साहब, इस कमेन्ट के बाद भी आशा है कि आप लोग मुझ से वही 'दूरी' बनाए रखेंगे, जो अब तक रखी है.
सर्वत साहब की ग़ज़ल तो हस्बे-मामूल है, बस एक लफ़्ज़ के लिखने के तरीक़े से असली मायने दब रहे हैं। जी हाँ, मेरा इशारा है कि "उधार खाता हूँ" को "उधारखाता हूँ" लिखा जाना चाहिए था। अगर ये जानबूझ कर किया गया है, दोनों मायने झलकाने के लिए - तो अपनी गुस्ताख़ी और नासमझी के लिए मुआफ़ी का ख़्वाहिशमन्द हूँ।
ReplyDeleteहिमॉंशु जी बहुत खूब, नज़रिया है और काबिले तारीफ़ हे नज़रिया। यहॉं उधारखाता भी हो सकता था, अब सर्वत साहब ने उधार खाता ही कहा है या यह टंकणत्रुटि थी यह तो वही बतायेंगे।
ReplyDeleteनिर्मला जी जम कर मेहनत कर रही हैं, अब समय तो लगता ही है। आयेगा निखार आहिस्ता आहिस्ता।
सर्बत भाई साहिब का बहुत बहुत धन्यवाद जो मेरे लिये अपना कीमती समय निकाला। उन दुआरा इन्गित गलतिओं को सुधार कर लिख लूँगी। तिलक भाई साहिब का भी बहुत बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteNirmla ji ki gazal ke
ReplyDeleteरंज़ में हम से हुआ है ये भी
आशियां खुद का जलाने निकले।
waah kya baat kahi hai .......
सच ही सुनता हूँ, सच सुनाता हूँ
और मैं रोज़ मुंह की खाता हूँ
भाईचारा,समाज, मजहब, अम्न
अब इन्हें मुंह नहीं लगाता हूँ
मैं भिखारी हुआ तो इस पर भी
लोग बोले, बहुत कमाता हूँ
मेरे बाजू ही मेरी दुनिया हैं
अपनी किस्मत का खुद विधाता हूँ
आप तहजीब की तलाश में हैं
चलिए, मैं भी पता लगाता हूँ
जीत जाते हैं लोग दुश्मन से
दोस्तों से मैं हार जाता हूँ
मुझ पे भी ध्यान दो कभी 'सर्वत'
मैं तुम्हारा उधार खाता हूँ
Sarwat ji ke kisi ek sher ko pasand karna bahut mushkil tha .....
achi ghazal hai.....
ReplyDeleteA Silent Silence : Mout humse maang rahi zindgi..(मौत हमसे मांग रही जिंदगी..)
Banned Area News : Canadian Actress Lisa Ray In Fight Against Cancer
भाईचारा,समाज, मजहब, अम्न
ReplyDeleteअब इन्हें मुंह नहीं लगाता हूँ
Bahut khoob likha hai..daad ke saath Devi N
भाईचारा,समाज, मजहब, अम्न
ReplyDeleteअब इन्हें मुंह नहीं लगाता हूँ
Bahut Khoob kaha hai! Daad ke saath
Devi nangrani
भाईचारा,समाज, मजहब, अम्न
ReplyDeleteअब इन्हें मुंह नहीं लगाता हूँ
Kya khoob kaha hai
Daad ke saath...
तिलक जी ,
ReplyDeleteसिर्फ यह बताने आया हूँ की कहीं ये न समझ लें की एक स्टुडेंट गैरहाजिर चल रहा है . हाँ था काफी दिन पर पुराना होम वर्क लौट कर पूरा कर लिया है .
आपने इन ग़ज़लों को जो श्रृंगार दिया है वह इनके भाओं की खुशबू को उडान दे रहीं है .
सर्वत जी की ग़ज़ल का आख़िरी शेर .
' उधार खाता ' या ' उधारखाता ' दोनों ही शब्द ऐसे जबरदस्त मानी दे देते हैं और पूरी तरह से अलग की मेरा ख्याल है की एक में ही दो शेरों का मज़ा शुमार है .
शायद इसी को कहते हैं ............' टू इन वन ' :) .
सच ही सुनता हूँ, सच सुनाता हूँ
ReplyDeleteऔर मैं रोज़ मुंह की खाता हूँ
हकीकत यही है।
देखिये दुनिया की रंगत, खुद भी यूं ही रंग जाइये
झूठ सुनिये झूठ सुनाईये, सारी दुनिया अपनी बनाईये
"यूँ किसे दुख नहीं है दुनियाँ मे/ आप ये किसको सुनाने निकले"- वाह! दार्शनिक अंदाज़ है आपका. बहुत अच्छी रचना. बधाई स्वीकारें. अवनीश सिंह चौहान.
ReplyDeleteसर्वत जी की ग़ज़ल पर एक शे’र अर्पित है।
ReplyDeleteजब भी ‘सिस्टम’ को गालियाँ देता
लोग कहते हैं गीत गाता हूँ
prastut dono gajlen se gujarna achchha laga,inhen padvane ke liye aabhar.
ReplyDeletebahut sunder.
ReplyDeletebahut sunder.
ReplyDeleteवाह...बहुत सुन्दर....बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteनयी पोस्ट@जब भी जली है बहू जली है