Sunday, July 18, 2010

'मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ' - अंतिम किस्‍त

बात खुलकर सामने नहीं आ रही है। अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता कहीं मर्यादाओं में दब गयी है। हमारे संस्‍कार शायद ऐसा ही कहते हैं लेकिन इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि जब तक प्रश्‍न नहीं उठते गुत्थियॉं नहीं खुलती। नये शाइरों की जो ग़ज़लें आती हैं उनमें मुख्‍य समस्‍या बह्र की देखने में आ रही है इसलिये मुझे लग रहा है कि अब समय आ गया है जब अथ-कथित पर एक पोस्‍ट लग ही जाना चाहिये जो मात्रिक गणना पर केन्द्रित हो। अगले सप्‍ताह तक शायद यह संभव हो सके। मेरे पास जो दो ग़ज़लें शेष हैं उनमें से एक है निर्मला कपिला जी की और दूसरी सर्वत साहब की। दोनों परिचय के मोहताज नहीं हैं। निर्मला जी ग़ज़ल में अभी स्‍वयं को शिक्षार्थी मानती हैं इस नजरिये से उन्‍होंने बह्र चुनने में आंशिक छूट चाही थी। उनकी ग़ज़ल 'मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ' की बह्र पर भी हो सकती थी ऐसा मेरा मानना है, लेकिन पूर्व अनुमति को देखते हुए अब उनकी ग़ज़ल मुकम्‍मल है कि नहीं इतना ही देख लेते हैं आप सबकी राय से। निर्मला जी सुझावों को सहृदयता व खिलाड़ी भावना से लेती हैं अत: सुझाव खुलकर व्‍यक्‍त करें।

निर्मला कपिला जी की ग़ज़ल

दर्द आँखों से बहाने निकले
गम उसे अपने सुनाने निकले।

रंज़ में हम से हुआ है ये भी
आशियां खुद का जलाने निकले।

गर्दिशें भूल भी जाऊँ लेकिन
रोज रोने के बहाने निकले।

फि़र से मुस्‍कान की नकाबों में
जो जलाया था, बुझाने निकले।

आप किन वायदों की ताकत पर
उनसे ये शर्त लगाने निकले।
प्‍यार क्‍या है नहीं जाना लेकिन
सारी दुनिया को बताने निकले।

तुमने रिश्‍ता न निभाया कोई
याद फिर किस को दिलाने निकले।

झूम कर यूँ कभी उमडे बादल
ज्‍यूँ धरा कोई सजाने निकले।

यूँ किसे दुख नहीं है दुनियाँ मे
आप ये किसको सुनाने निकले।

आप गठरी को बॉंध पापों की
क्‍यूँ त्रिवेणी पे नहाने निकले।


और अब अंत में सर्वत साहब की ग़ज़ल:

सच ही सुनता हूँ, सच सुनाता हूँ
और मैं रोज़ मुंह की खाता हूँ

भाईचारा,समाज, मजहब, अम्न
अब इन्हें मुंह नहीं लगाता हूँ

मैं भिखारी हुआ तो इस पर भी
लोग बोले, बहुत कमाता हूँ

मेरे बाजू ही मेरी दुनिया हैं
अपनी किस्मत का खुद विधाता हूँ

आप तहजीब की तलाश में हैं
चलिए, मैं भी पता लगाता हूँ

जीत जाते हैं लोग दुश्मन से
दोस्तों से मैं हार जाता हूँ

मुझ पे भी ध्यान दो कभी 'सर्वत'
मैं तुम्हारा उधार खाता हूँ

आपके सुझाव आमंत्रित हैं।



Sunday, July 4, 2010

शिव कुमार 'साहिल' की ग़ज़ल

पिछली ग़ज़ल थी श्री के.के.सिंह 'मयंक' की जो लखनऊ में रहते हैं, ये ग़ज़ल सर्वत साहब के माध्‍यम से मिली थी।

इस बार की ग़ज़ल प्राप्‍त हुई है शिव कुमार "साहिल " जी से जो हिमाचल प्रदेश के छोटे से गांव गुरुप्लाह, जिला - ऊना के निवासी हैं। कहते हैं कि अभी ग़ज़ल कि बारीकियों व तकनिकी पक्ष से नवाकिफ हैं, सीखने क़ी कोशिश में लगे हैं।

ग़ज़ल

वो कहानी मेरी सुनाता है
इस तरह गम को वो सुलाता है।

ढूंढता है मुझे अकेले में
जब मिले तो नज़र चुराता है

आ गया है उसे हुनर ये भी
मुस्‍कुराहट में ग़म छुपाता है।

भूल जाता हूँ खुद को मैं साकी
तू ये पानी में क्या मिलाता है।

जब कभी दिल जला तो आँखों से
गर्म पानी छलक ही जाता है।

कोई भी घर में अब नही रहता
बंद दर सब को ये बताता है

चाँद बैठा हुआ है पहरे पर
कौन तारे यहॉं चुराता है?

आपके सुझावों का स्‍वागत है।

Sunday, June 13, 2010

'मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ' की बह्र पर एक और ग़ज़ल चर्चा के लिये।

पिछली पोस्‍ट पर इंद्रनील भट्टाचार्जी की ग़ज़ल चर्चा के लिये लगाई गयी थी। इस बार की ग़ज़ल के साथ मैं शाईर का नाम नहीं दे रहा हूँ यह नाम अगली पोस्‍टमें ही बताया जायेगा । नाम जाहिर न हो सके इसलिये मक्‍ते के शेर में शाइर का नाम गायब कर दिया गया है। इस ग़ज़ल में मूल रदीफ़ काफि़या कायम रखा गया है। सीखने वाले शाइरों के लिये इसमें बहुत कुछ है।


पहले सजदे में सर झुकाता हूँ
फिर दुआ को मैं हाथ उठाता हूँ


गम उठाता हूँ, मुस्कुराता हूँ
यूं भी दुनिया को मुंह चिढ़ाता हूँ


इतने कांटे चुभोए हैं सब ने
फूल छूने से खौफ खाता हूँ


दुश्मनों को अगर मिलें खुशियाँ
जीती बाजी भी हार जाता हूँ


काविशों पर है एत्माद मुझे
शर्त लेकिन नहीं लगाता हूँ


सबकी खुशियों का जब सवाल आए
अपनी खुशियों को भूल जाता हूँ


दिल में जब भी घना अँधेरा हो
मैं खुदी का दिया जलाता हूँ


आग तो आप ही लगाते हैं
आग मैं तो नहीं लगाता हूँ


प्यार करता हूँ दुश्मनों को भी
इस तरह दुश्मनी निभाता हूँ


दोस्तों की अलग है बात मगर
दुश्मनों से भी मैं निभाता हूँ.

आपकी सार्थक टिप्‍पणियों की प्रतीक्षा रहेगी।

Sunday, June 6, 2010

इंद्रनील भट्टाचार्जी की ग़ज़ल चर्चा के लिये


अब तक इस ब्‍लॉग पर पॉंच ग़ज़लें चर्चा के लिये लगीं और मुझे यह स्‍वीकारने में कोई झिझक नहीं कि इन पॉंच ग़ज़लों से कोई स्‍पष्‍ट दिशा नहीं मिल सकी। कारण मुख्‍यत: यह रहा कि कोई खुलकर व्‍यक्‍त नहीं होना चाहता विशेषकर जब किसी की कही हुई ग़ज़ल पर प्रशंसा न करते हुए कुछ ऐसा कहना हो जो सही तो हो लेकिन ग़ज़ल कहने वाले को सहज स्‍वीकार्य होने की संभावना कम हो।

नये शाइरों ने शायद आत्‍मविश्‍वास की कमी के कारण नहीं कहा और कहने का दायित्‍व अनुभवी शाइरों पर छोड़ दिया। अनुभवी लोगों ने अपने विचार कुछ हद तक व्‍यक्‍त तो किये लेकिन जिनकी ग़ज़लों पर चर्चा हो रही थी उन्‍होंने यह समझने का प्रयास नहीं किया कि जो सलाह आयी है उसके पीछे कारण क्‍या है।

पॉंच में से तीन ग़ज़ल कहने वाले ऐसे थे जो पहले से ग़ज़ल कह रहे हैं, स्‍वाभाविक है कि उनकी ग़ज़ल में काफि़या दोष और कहन पर ही कुछ कहा जा सकता था। दो ग़ज़लें जिस हालत में प्राप्‍त हुई थीं उस हालत में उन्‍हें ग़ज़ल कहना मुश्किल था और चर्चा में नहीं लिया जा सकता था लेकिन बात जब सीखने सिखाने की हो तो सीखने वालों को यह भी तो मालूम होना चाहिये कि ग़ज़ल की आधार आवश्‍यकतायें क्‍या होती है और यह समझने के लिये अग़ज़ल से बेहतर उदाहरण क्‍या हो सकता है।

इन दो अग़ज़लों मे से पहली संदेश दीक्षित की थी जो पूरी चर्चा के दौरान मूक दर्शक बने रहे और बाद में भी समय नहीं निकाल पाये। इंद्रनील भट्टाचार्जी की ग़ज़ल भी पहले तो अग़ज़ल के रूप में ही प्राप्‍त हुई थी लेकिन वो ई-मेल पर चर्चा कर निरंतर उस पर कार्य करते रहे और चर्चा के लिये लगने तक ग़ज़ल को ऐसा रूप दे सके कि उस पर चर्चा हो सके।

टिप्‍पणी देने की झिझक को देखते हुए मैनें अंतिम ग़ज़ल की शाइरा का नाम नहीं दिया यह ग़ज़ल प्राप्‍त हुई थी निर्मला कपिला जी से। इनकी ग़ज़ल जिस रूप में प्राप्‍त हुई थी वह ठीक तो थी लेकिन बह्र बहुत कठिन हो रही थी इसलिये उन्‍हें बह्र पर कुछ आरंभिक सुझाव देकर आंशिक बदलाव जरूरी हो गया था।

इंद्रनील भट्टाचार्जी और निर्मला कपिला जी की ग़ज़लों में न्‍यूनतम आवश्‍यक सुझाव मैनें दिये अवश्‍य लेकिन काफि़ये और कहन में कोई बदलाव नहीं किया जिससे ग़ज़ल का मूल स्‍वरूप बना रहे।

पूरे दौर में सर्वाधिक सक्रिय रहे सर्वत साहब और फिर जोगेश्‍वर गर्ग साहब। प्राण शर्मा जी ने आवश्‍यकतानुसार तकनीकि बिन्‍दुओं पर अपना मार्गदर्शन दिया। मुफलिस साहब, नीरज भाई, शाहिद भाई और गौतम राजरिशी की व्‍यस्‍तताओं ने उन्‍हें बहुत समय नहीं देने दिया मैं आशा करता हूँ कि अब वो समय अवश्‍य निकाल पायेंगे।

किसी के शेर पर समीक्षात्‍मक टिप्‍पणी देना अथवा नहीं देना व्‍यक्तिगत अधिकार है लेकिन नये शाईरों ने इस विषय में संकोच नहीं करना चाहिये। क्‍या होगा, ज्‍यादह से ज्‍यादह लोग हँसेगे कि क्‍या बेवकूफ़ी भरी टिप्‍पणी दी है; इस ब्‍लॉग पर कमसे कम एक लाभ तो होगा कि जब आपकी टिप्‍पणी की काट आयेगी तो आपको और अधिक विषय स्‍पष्‍टता प्राप्‍त होगी, साथ ही उन्‍हें भी प्राप्‍त होगी जो आपकी टिप्‍पणी और उसपर प्राप्‍त प्रति-टिप्‍पणी पढ़ेंगे।

सर्वत साहब ने एक तरहीनुमा हल सुझाया है उसपर काम चालू कर दिया है और उसकी सूचना पिछली पोस्‍ट में दे ही दी थी। यह तरहीनुमा इसलिये है कि इसमें रदीफ़ काफि़या का बंधन नहीं रहेगा, केवल बह्र का पालन करना होगा। अभी तक चार ग़ज़लें प्राप्‍त हुई हैं जिनमें से पहली ग़ज़ल आज प्रस्‍तुत है।

'मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ' की बह्र पर इंद्रनील भट्टाचार्जी की ग़ज़ल चर्चा के लिये:

दिल जिसे हर घडी बुलाता है
जानकर वो जिया जलाता है

प्यार से हाथ फिर मिलाया है
ऐसे ही वो मुझे डराता है

भूल जाये भले ही जख्मों को
याद से पैरहन सिलाता है

पास वो आजकल नहीं आता
दूर से हाथ बस हिलाता है

रात भर जाग कर जो ख्‍वाब बुने
भोर होते ही भूल जाता है।

उसको लहरों से डर नहीं लगता
रेत पर वो महल बनाता है।

‘सैल’ उसकी अदा निराली है
हार कर वो मुझे हराता है

कृपया खुलकर सुझाव दें।

Sunday, May 23, 2010

एक नयी ग़ज़ल चर्चा के लिये


कदम-दर-कदम पर चर्चा के लिये पहले से प्राप्‍त ग़ज़लों में से एक ग़ज़ल बची हुई है इसकी घोषणा तो पिछली पोस्‍ट  में कर ही दी थी। इस बार शाईर/शाईरा का नाम नहीं दिया जा रहा है जिससे चर्चा खुली हो। हॉं इतना जरूर कह सकता हूँ कि यह ग़ज़ल मेरी नहीं है न ही सर्वत साहब की। ग़ज़ल बह्र में भी लग रही है। मेरा अनुरोध है कि इसपर अपने विचार खुलकर रखें। जो प्रारंभिक 5 ग़ज़लें चर्चा के लिये प्राप्‍त हुई थीं वो इस के साथ समाप्‍त हो रही हैं।

अब आगे की व्‍यवस्‍था इस प्रकार निर्धारित की गयी है कि बह्र, रदीफ़, काफि़या पहले से दे दिया जायेगा इस छूट के साथ कि शाईर चाहें तो रदीफ़ और काफि़या बदल कर भी ग़ज़ल कह सकते हैं। ऐसा करने से चर्चा के लिये प्राप्‍त होने वाली गुणवत्‍ता में सुधार होगा ऐसी अपेक्षा है।

आपने स्‍वर्गीय दुष्‍यन्‍त कुमार की ग़ज़ल पढ़ी/सुनी होगी।


'मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ।

तू किसी रेल सी गुजरती है,
मैं किसी पुल सा थरथ‍राता हूँ।

एक बाज़ू उखड़ गया जबसे
और ज्‍यादह वज़न उठाता हूँ।'

इसकी बह्र है बह्रे-खफीफ मुसद्दस् मख्बून मक्तुअ या बह्रे-हजज मुसद्दस् अस्तर जिसके अरकान हैं

फ़ायलुन्  फ़ायलुन् मफ़ाईलुन् या 212 212 1222

सीमित संपर्क दायरें में यह सूचना ई-मेल से पूर्व में ही दे दी गयी थी और उसपर कुछ ग़ज़लें प्राप्‍त भी हो चुकी हैं।

इस बह्र पर चर्चा के लिये कोई भी अपनी ग़ज़ल भेज सकता है जब तक आती रहेंगी चर्चा चलती रहेगी। कहने वाले को छूट रहेगी कि चाहे तो रदीफ़ काफि़या भी बदल सकते हैं ले‍किन बह्र का पालन तो करना ही है।

अब इस बार की ग़ज़ल जिसपर चर्चा आमंत्रित है:
बह्र है; बह्रे रमल मुसम्मन् महजूफ

फायलातुन्, फायलातुन्, फायलातुन्, फायलुन् 2122 2122 2122 212 

बढ़ रहे हैं फासिले इन्‍सान से इन्‍सान के
रह गये क्‍या मायने अब दीन-औ-ईमान के।

बेइमानों और झूठों की ही हर-सू धाक है
गीत गाता कौन सच्‍चे और इक गुणवान के।

गम मुझे कोई न दुनिया के रुला पाये कभी
दर्द जो तुमने दिये दुश्मन बने हैं जान के।

आशियाँ तो लुट गया इक बेवफा के हाथ में
कौन जाने दिन फिरेंगे या नहीं नादान के।

हाथ से अपने उजाड़ा हो किसी ने घर अगर
क्‍या बतायेगा किसी को हाल बीयाबान के।

चल दिया था जो किनारा कर घड़ी में दर्द की
आज वो है दर्द में तो क्या करें पहचान के।

वेद ग्रंथों मे पढा था एक है परमात्मा
देखिये तो रूप कितने हो गये भगवान के।

Sunday, May 16, 2010

इंद्रनील भट्टाचार्जी की ग़ज़ल पर चर्चा


कवि कुलवंत जी की ग़ज़ल पर चर्चा समाप्‍त हो चुकी है, विधिवत् समापन अभी नहीं हुआ है, उसके लिये समापन आलेख की जरूरत है। चर्चा में सर्वत साहब के योगदान को देखते हुए मैं चाहूँगा कि य‍ह कार्य वही सम्‍हालें। तदनुसार उनसे अनुरोध है।

इस पोस्‍ट की ग़ज़ल इंद्रनील भट्टाचार्जी से प्राप्त हुई है जो अभी ग़ज़ल कहने में नये हैं। 'सैल' उपनाम से लिखते हैं। इनके मामले में भी पहली समस्‍या बह्र निर्धारित करने की ही है जो 17 मई तक की जाना आवश्‍यक है जिससे बात आगे बढ़े। रदीफ़ काफि़या तो इसमें है ही। इनके अशआर में सुझाव के साथ-साथ दो एक शेर और आ जायें तो मज़ा आ जाये। अब तक जो ग़ज़लें मेरे पास आई हैं चर्चा के लिये उनमें से एक और बची है अगले सप्‍ताह के लिये। उसके बाद मेरा विचार है कि ग़ज़ल चर्चा के लिये प्रस्‍तुत करते समय शाइर का नाम नहीं दिया जाये जिससे चर्चा में जो खुलकर विचार व्‍यक्‍त नहीं कर रहे हैं वो भी खुलकर विचार रखें। शाइर का नाम आ जाने से संकोच की स्थिति बनती दिख रही है जो स्‍वस्‍थ नहीं है।

चर्चा के लिये प्रस्‍तुत ग़ज़ल

4-1
कुछ हिन्दू, कुछ मुसलमान, कुछ सिक्ख ईसाई, सम्हल चलो !
ये बस्ती नहीं इंसानों की, तुम जान बचाकर निकल चलो !!

4-2
तुम ऊँचे ओहदे पर होगे, पर दफ्तर घर के करीब तो है !
क्यूँ हमेशा चलना है गाड़ी से, तुम भी कभी पैदल चलो !!

4-3
जम गयी है सोच अब,  नहीं आता नया ख्याल कोई !
ढूंढ आते हैं अश'आर कुछ,  आते हैं थोडा टहल चलो !!

4-4
कुछ अरमान है, थोड़े से आंसूं, और एक तस्वीर है !
सपनों की वादियों में करते हैं तामीर महल चलो !!

4-5
ग़म भुलाने के लिए 'सैल' ये तरीका अच्छा है बहुत !
बातें यूँ ही दो चार करलें, दिल जायेगा बहल चलो !!

Sunday, May 9, 2010

कवि कुलवंत की ग़ज़ल पर चर्चा-1


पिछली बार चर्चा के लिये प्राप्‍त ग़ज़ल पर अभी काम पूरा नहीं हो पाया है। संदेश दीक्षित जी ने उनकी व्‍यस्‍तता के कारण कुछ समय चाहा है। वह ग़ज़ल अभी लंबित रखते हुए काम आगे बढ़ाते हैं।


इस बार चर्चा के लिये प्राप्‍त ग़ज़ल:

प्रस्‍तुत ग़ज़ल कवि कुलवंत सिंह जी से प्राप्‍त हुई है जो किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं, लगभग सभी हिन्‍दी ब्‍लॉग्‍स पर प्रकाशित हो चुके है, अपना ब्‍लॉग भी चलाते हैं।

ग़ज़ल की बह्र उनके द्वारा अनुमान से यह बताई गयी है:

221, 1221, 1221, 1221; मफ़ऊलु, मफ़ाईलु, मफ़ाईलु, मफ़ाईलु।
यह कोई ज्ञात बह्र नहीं है अत: सबसे पहले तो इसकी बह्र निर्धारित की जाना जरूरी है जिससे सभी सुझाव किसी निश्चित बह्र पर हों। यह दायित्‍व किसी को तो लेना ही होगा।

मैं कुछ अपरिहार्य कारणों से दिनांक 10 मई दोपहर बाद से दिनांक 13 मई सुब्‍ह तक इंटरनैट नियमित रूप से चैक नहीं कर पाउँगा इसलिये विशेष अनुरोध है कि कृपया इस अवधि में किसीकी टिप्‍पणी प्रकाशित होने में विलंब हो जाये तो निराश न हों, बीच में कुछ न कुछ प्रयास कर कम से कम टिप्‍पणी तो माडरेशन का काम तो करता ही रहूँगा।

3-1
शैदाई समझ कर जिसे था दिल में बसाया
कातिल था वही उसने मेरा कत्ल कराया।

3-2
दुनिया को दिखाने जो चला दर्द मैं अपने,
हर घर में दिखा मुझको तो दुख दर्द का साया।

3-3
किसको मैं सुनाऊँ ये तो मुश्किल है फसाना
दुश्मन था वही मैने जिसे भाई बनाया।

3-4
मैं कांप रहा हूँ कि वो किस फन से डसेगा,
फिर आज है उसने मुझसे प्यार जताया।

3-5
आकाश में उड़ता था मैं परवाज़ थी ऊँची,
पर नोंच मुझे उसने जमीं पर है गिराया।

3-6
गीतों में मेरे जिसने कभी खुद को था देखा,
आवाज मेरी सुन के भी अनजान बताया।

3-7
कांधे पे चढ़ा के उसे मंजिल थी दिखाई,
मंजिल पे पहुँच उसने मुझे मार गिराया।



शैदाई= चाहने वाला, पर = पंख, परवाज = उड़ान



दिनांक 15 मई तक ग़ज़ल चर्चा के लिये खुली है। आपके सुझाव आमंत्रित हैं

Thursday, May 6, 2010

संदेश दीक्षित की ग़ज़ल पर चर्चा-2


कहना सरल होगा कि इस बार सबकी व्‍यस्‍तता कुछ ज्‍यादह ही रही, लेकिन नहीं; समस्‍या इस बार दूसरी थी। होता यह है कि जिन ग़ज़लों पर चर्चा होती है उनमें बह्र, रदीफ़ और काफिया स्‍पष्‍ट होता है, चर्चा सीमित रह जाती है कहन और शिल्‍प, व्‍याकरणादि पर। स्‍वाभाविक है इस विषय पर स्‍पष्‍टता नहीं होने के कारण सुझाव देने में असमंजस की स्थिति बनी रही, क्षमाप्रार्थी हूँ इस स्थिति के लिये। यह ग़ज़ल मुझे अपनी प्रकृति के अनुरूप लगी, एक खुली चुनौती की तरह, इसीलिये ली वरना कमज़ोर ग़ज़ल को नकारना आसान होता है।

चूँकि बह्र स्‍पष्‍ट की जाना जरूरी था, पहला प्रयास मैनें वही किया और कोशिश करी कि प्राप्‍त रदीफ़ काफिया रखते हुए इसे निबाहने का प्रयास किया जाये। इसीलिये प्राथमिक प्रयास को पोस्‍ट पर ही प्रस्‍तुत किया तक्‍तीअ, मत्‍ले और तीन मिस्रा-ए-सानी के साथ। जैसा कि नीचे दिया गया है:

1

2

2

2

1

2

2

2

1

2

2

2

1

2

2

2

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दु

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स्‍त

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या

इंत

का

रस

ही

जब ये तक्‍तीअ मैं कर रहा था लगातार लग रहा था कि कुछ ग़लती हो रही है, लेकिन समय के दबाव में गलती का एहसास भर हो रहा था समझ नहीं आ रही थी। पोस्‍ट लगने के बाद दो दिन तक जब कोई सुझाव नहीं आया तो इसी बह्र पर एक उदाहरण ग़ज़ल 'रास्‍ते की धूल' पर लगा दी और उसके साथ ही इस ब्‍लॉग की पोस्‍ट संशोधित कर दी जिसमें रदीफ़, काफिया के विकल्‍प भी लगा दिये कि शायद अब गाड़ी आगे बढ़े। अब बह्र, रदीफ़ और काफिया तीनों उपलब्‍ध होते हुए भी शायद बहुत से वैकल्पिक रदीफ़ होने के कारण कोई सुझाव नहीं आया।

इस पूरे प्रयास में कहीं से भी कोई भी बात ऐसी नहीं आयी जो बात आगे बढ़ा सके। इस बीच मैं लगातार उपर दी गयी तक्‍तीअ पर सोच रहा था कि तक्‍तीअ ठीक होते हुए भी पंक्तियॉं पढ़ने में अटक क्‍यों रही हैं। हो यह रहा है कि मात्रिक गणना ठीक होते हुए भी 'मफ़ा ई लुन्' की एक विशेष प्रकृति है जो सारी समस्‍या की जड़ है। http://subeerin.blogspot.com पर 22 दिसम्‍बर 2009 का पोस्‍ट देखकर कोशिश करें समझने और समझाने की।

नीचे दिये गये उदाहरणों को पढ़ कर देखकर 'और सही' वाली तक्‍तीअ देखें।

फ़ा

लुन्

फ़ा

लुन्

फ़ा

लुन्

फ़ा

लुन्

1

2

2

2

1

2

2

2

1

2

2

2

1

2

2

2

हू

कम

है

गर

जा

नम

तु

झे

मैं

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दे

दूँ

गर

कम

है

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नम

तु

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मैं

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कम

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ते

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है

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झे

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घर

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मु

झे

क्‍या

फर्

पड़

ता

है

ते

रा

घर

है

ला

दे

तू

अब कोशिश तो कर ही सकते हैं समझने समझाने की।

आगे की बात:

संदेश दीक्षित ने सख्‍़ती-कशाबे-इश्‍क का प्रयोग किया है।
सख्‍़तीकश तो हुआ मुसीबत झेलने वाला और आब-ए-इश्‍क हुआ प्रेम का रस(ठीक न हो मुझे बतादें, मेरा उर्दूज्ञान विश्‍वसनीय नहीं है)। प्यारेलाल 'शोकी';जी ने कहा था:
जिन प्रेम रस चाखा नहीं, अमृत पिया तो क्या हुआ
जिन इश्क में सर ना दिया, सो जग जिया तो क्या हुआ।

अब ये प्राप्‍त ग़ज़ल किनारे लगना जरूरी है और समय सीमा को देखते हुए मैं अपनी ओर से संदेश दीक्षित की कहन के करीब रहते हुए उनके चारों अश्‍आर पर अपना सुझाव दे रहा हूँ। सुझाव के हर शेर में पहली और आखिरी पंक्ति मेरी ओर से प्रस्‍तावित है अंतिम नहीं। अंतिम होगी सुझाव प्राप्‍त होने के बाद। बीच में जो कुछ है वो सुधार के चरण हैं। सुधार के साथ-साथ पहली पंक्ति उपर बढ़ती गयी है और दूसरी पंक्ति नीचे।

इन अश्‍आर पर भी चर्चा आमंत्रित है शनिवार सुब्‍ह तक जिससे शनिवार रात वे अपनी ग़ज़ल को अंतिम रूप दे सकें।

इसमें कुछ नये अशआर के सुझाव भी आमंत्रित हैं जिससे एक मुकम्‍मल ग़ज़ल पूरी हो सके। 'आओ' काफिया है और 'तुम' रदीफ़। बह्र वही 'मफ़ा ई लुन' x 4 या 1222, 1222, 1222, 1222।
2-1

तुम्‍हें गर दाग दिखते हैं तो चन्‍दा भूल जाओ तुम
अगर हैं दाग चन्‍दा में तो उसको भूल जाओ तुम
अगर हैं दाग चन्‍दा में तो उनको भूल जाओ तुम
मुहब्‍बत की है जब तुमने, सितारों से सजाओ तुम
सजाने को मुहब्‍बत को सितारे ढूँढ लाओ तुम
सजानी है मुहब्‍बत तो सितारे ढूँढ लाओ तुम

मुहब्‍बत है सजानी तो सितारे ढूँढ लाओ तुम
2-2
अगर वो याद आते हैं, तो शामें यूँ मनाओ तुम
भुलाकर जाम-ओ-मीना इबादतगाह जाओ तुम।
वहॉं जाओ, जहॉं जाकर, सभी कुछ भूल जाओ तुम।
2-3
लिखा है नाम सॉंसों पर फना जीवन किया उनपे
जिगर का खून है कम तो जहॉं को छोड़ जाओ तुम
जिगर का खून देकर मॉंग सजनी की सजाओ तुम।

जिगर का खून देकर मॉंग प्रियतम की सजाओ तुम।
2-4
सदा सख्ती-कशाब-ऐ-इश्क से लड़ते रहे हो तुम
अगर है जीस्‍त ही दुश्‍मन गले इसको लगाओ तुम
बना है इश्‍क ही दुश्‍मन गले इसको लगाओ तुम

बना जब इश्‍क ही दुश्‍मन गले इसको लगाओ तुम।

ये तो हुए चार शेर कच्‍चे-पक्‍के अब इनको अंतिम रूप देने में और कफछ और अश्‍आर कहने में आपका सहयोग ही काम करेगा।

 

Sunday, May 2, 2010

एक नवोदित की ग़ज़ल पर चर्चा

कुछ उनके लिये जो ग़ज़ल कहने की विधा में नये हैं:

प्रस्‍तुत ग़ज़ल पर चर्चा के पहले इस विधा को न जानने वालों के लिये जरूरी होगा कि आवश्‍यक बातें समझ लें जो इस प्रकार हैं:

कोई काव्‍य ग़ज़ल कहा जा सके इसके लिये जरूरी है कि वह ग़ज़ल के आधार नियमों का पालन करे। ग़ज़ल के आधार नियम हैं बह्र, रदीफ़, काफि़या। ग़ज़ल बिना रदीफ़ के भी कही जा सकती है, ऐसी स्थिति में बह्र और काफिया का पालन न्‍यूनतम आवश्‍यकता है। इसके बाद ग़ज़ल सराही जा सके इसके लिये आवश्‍यक होता है कि हम जो कहना चाह रहे हैं वह स्‍पष्‍ट रूप से समझ मे आ रहा हो।

ग़ज़ल कहने की दुनिया में कदम रखने वाले के लिये उचित रहता है कि व‍ह ग़ज़ल सुनने और पढ़ने में अपनी रुचि पैदा करे। इससे आरंभिक शेर कहने में मदद मिलेगी। प्राथमिक प्रयासों में उचित रहेगा यदि किसी ऐसी प्रचलित सुनी हुई ग़ज़ल को आधार बनायें जिसे आप गुनगुना सकें। इसी गुनगुनाने को आधार बना कर छिटपुट शेर कहने से ठीक-ठाक शुरूआत की जा सकती है।

शुरू में सरल बह्र पर ही काम करना ठीक रहता है। शेर कहने से पहले जरूरी हो जाता है कि जो शेर हम कहने जा रहे हैं उसके विचार को स्‍पष्‍ट कर लें। अच्‍छा काव्‍य कहने के लिये अच्‍छा शब्‍द सामर्थ्‍य आवश्‍यक है लेकिन अनावश्‍यक रूप से जटिल शब्‍दों के प्रयोग से बचना चाहिये। सटीक शब्‍दों का अपना ही महत्‍व होता है लेकिन मात्र अपना भाषा-ज्ञान जताने के लिये सामान्‍य प्रचलन के शब्‍दों से हटना ठीक नहीं होता है।

उचित होगा कि नये शाइर ग़ज़ल के विषय में आधार जानकारी भी अवश्‍य प्राप्‍त करलें। जिसमें बह्र की आधार जानकारी भी सम्मिलित है। कुछ जानकारी अथ-कथित पर आज ही पोस्‍ट की है।



ग़ज़ल कहने के चरण:

  • अगर किसी प्रचलित ग़ज़ल को आधार बनाया गया है तो स्‍पष्‍ट है कि बह्र, रदीफ़ और काफि़या तो निश्चित हो ही गया होगा अन्‍यथा अब रदीफ़ व काफिया निर्धारित करलें जिनका पालन आप इस ग़ज़ल में करनेवाले हैं। बह्र भी निर्धारित कर लें तो ठीक रहेगा।
  • इसके बाद पहली बात यह जरूरी हो जाती है कि एक शेर का कच्‍चा रूप लिख लिया जाये, बेहतर होगा कि लिखते समय गुनगुनायें और आवश्‍यकतानुसार शब्‍दों को ऐसे व्‍यवस्थित करें कि गुनगुनाने में सरल प्रवाह हो। अगर सबसे पहले ग़ज़ल के मत्‍ले का शेर लिख सकें तो और बेहतर।
  • पहला शेर (यहॉं यह जरूरी नहीं कि यह मत्‍ले का शेर हो) लिखने के बाद पहला काम होता है शेर से काफिया और रदीफ़ अलग करना, यह काम अप्रत्‍यक्ष रूप से तो शाइर कर ही चुका होता है लेकिन इसे प्रत्‍यक्ष रूप से अलग करना जरूरी है।
  • जब रदीफ़ व काफिया अलग करलें तो उसका मात्रिक क्रम देखें। यह मात्रिक क्रम निर्धारित करेगा कि जो बह्र चुनी जानी है उसके अंत में कौनसे रुक्‍न रहेंगे। एक बार यह पहचान लेने से संभावित बह्रों का दायरा सीमित हो जाता है और आपको बह्रों के बह्र में डूबना नहीं पड़ता (उर्दू में बह्र का एक अर्थ समंदर भी हैं)।
  • संभावित बह्रों में से व‍ह बह्र ग़ज़ल कहने के लिये चुनें जो मात्रिक क्रम और कुल मात्रिक भार में आपके कहे शेर की पंक्तियों से सबसे ज्‍यादह मेल खाती हो। एक से ज्‍यादह बह्र में अनिर्णय की स्थिति होने पर प्राथमिकता ऐसी बह्र को दें जिसके अरकान आप सहजता से गुनगुना पा रहे हों या प्रवाह में पढ़ पा रहे हों।
  • अब ग़ज़ल का काफिया देखकर उसके अनुरूप शब्‍दों का चयन कर कहीं हाशिये में लिख लें।
  • अब आपके पास बह्र भी है, काफिया भी है और रदीफ़ भी; इसके आधार पर प्रयास कीजिये अशआर कहने का।
  • हो सकता है पहली ग़ज़ल के शेर कहने में हफ़्ता भर या और ज्‍यादह समय भी लग जाये। लगने दें, जल्‍दी न करें, बह्र रदीफ़ काफिया दिमाग़ में लिये गुनगुनाते रहें-गुनगुनाते रहें। दिन में कितनी ही बार आपके मन में कई विचार आयेंगे उन्‍हें शेर के रूप में कहने का प्रयास करें। कहते र‍हें, लिखते रहें। इसी तरह ग़ज़ल का पहला रूप पूरा होगा।
  • ग़ज़ल के रूप का फुर्सत में परीक्षण करें और हर शेर को देखें कि उसे और बेहतर कैसे किया जा सकता है।
  • जब आप किसी शेर के प्रति आश्‍वस्‍त हो जायें तो तक्‍तीअ करके देखलें कि वह बह्र से बाहर तो नहीं हो रहा है।
  • धीरे-धीरे आपको ग़ज़ल इस लायक हो जायेगी कि उसपर किसी अनुभवी ग़ज़लकार की सलाह ले सकें, निसस्‍ंकोच लें।
  • यह कभी न भूलें कि ग़ज़ल कहना एक सतत् अभ्‍यास है, अभ्‍यास करते रहें।

प्राप्‍त ग़ज़ल की बात:

जो ग़ज़ल प्राप्‍त हुई है वह इस प्रकार है:
2-1
यूँ तो चॉंद में इतने दाग हैं, फिर एक दाग और सही
खूब लगे इलज़ाम इश्क पर मेरे, फिर एक इलज़ाम और सही
2-2
हर जाम का हर याद से हिसाब लूँ, हर अश्क का हर शाम से
तेरी याद गर ये शराब भुलाये, तो फिर एक जाम और सही
2-3
हर साँस पे तेरा नाम लिखा, जिंदगी तुझ पर फ़ना हुयी
खून-ऐ-जिगर जो झूठ है, तो ले मौत तेरे नाम और सही
2-4
सख्ती-कशाब-ऐ-इश्क से तुम खूब लड़े हो ‘शादाब’
अब जो जिस्त दुश्मन हुई,फिर एक इंतकाम और सही

प्रस्‍तुत ग़ज़ल, वर्तमान स्थिति में ग़ज़ल के रूप में बिल्‍कुल स्‍वीकार्य नहीं है इसलिये सीखने वालों के लिये बहुत कुछ दे सकती है। प्रेषक का परिचय तो अभी मैं नहीं दे रहा हूँ लेकिन अगर उन्‍होंने ने चाहा तो परिचय भी दिया जायेगा। संभवतया: प्रेषक की यह पहली ग़ज़ल है और उन्‍हें किसी का मार्गदर्शन भी प्राप्‍त नहीं है इस विधा में।
इसमें सबसे पहले रदीफ़ पहचानना जरूरी है। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि प्रस्‍तुत ग़ज़ल मे रदीफ़ 'और सही' है जो एक शब्‍द समूह के रूप में अंत में पहले शेर में दोनों पंक्तियों में और अन्‍य आशआर की दूसरी पंक्ति में आ रहा है।
प्रस्‍तुत ग़ज़ल को यदि कच्‍चा रूप माना जाये तो इसमें (अभी नुक्‍ते की बात भूल जायें तो) काफिया बन रहा है 'आम' यानि जो श्‍ाब्‍द इसमें बतौर काफिया इस्‍तेमाल होंगे उनका आखिरी व्‍यंजन होगा 'म' और उस व्‍यंजन के पहले का स्‍वर होगा 'आ'। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस ग़ज़ल में बतौर काफिया इस्‍तेमाल होने योग्‍य शब्‍द होंगे - आम, काम, घाम, चाम, जाम, थाम, दाम, धाम, नाम आदि पर समाप्‍त होने वाले शब्‍द। ऐसे शब्‍द अकारादि क्रम में कहीं मार्जिन में लिख लें जिससे उपलब्‍ध काफिये ज्ञात रहें।
अब काफिया और रदीफ़ का मात्रिक क्रम देख लिया जाये जिससे बह्र निर्धारण में सहायता मिले।
प्रस्‍तुत ग़ज़ल में 'आम और सही' का मात्रिक क्रम है 212112 या 21222 । अब इस ग़ज़ल के लिये जो बह्र ली जा सकती हैं उनका निर्धारण आवश्‍यक होगा। बह्र एक मात्रिक क्रम होता है, इसलिये इस ग़ज़ल के लिये वही बह्र ली जा सकेंगी जिसके अंत में 212112 या 21222 का क्रम मिल सके। इस काफि़या रदीफ़ संयोजन में एक अच्‍छी गुँजाईश है कि 'आम' की तुक में 'और सही' का 'और' मिलकर 'आमौर सही' का प्रभाव दे रहा है (ऐसा लयात्‍मक संधि के कारण है) जिसके कारण 2222 में समाप्‍त होने वाली बह्र भी उपयुक्‍त रहेंगी। यह वह स्थिति है जहॉं नया शाइर अटक सकता है।
अगर मुफ़रद बह्रों को देखें तो बह्रे हजज में वर्तमान ग़ज़ल का हल है जो इस प्रकार है:
मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन या 1222, 1222, 1222, 1222
प्राप्‍त ग़ज़ल पहली नज़र में ही दिख रही है कि बह्र से बाहर है और इसकी बह्र निकालना संभव न होगा लेकिन फिर भी प्रयास कर देखते हैं कि इसके लिये संभावित बह्र क्‍या बनती है। इसके लिये प्राप्‍त अशआर की तक्‍तीअ करके देखते हैं:

पहला शेर है 2-1
यूँ तो चाँ में इत ने दा है फिर एक दा रस ही
2 2 2 1 2 2 2 2 1 2 2 2 2 1 2 2 2
खू बल गे इल ज़ा इश्‍ कप मे रे फिर एक इल ज़ा रस ही
2 2 2 2 2 1 2 2 2 2 2 2 2 2 2 1 2 2 1

पहले ही शेर में देखें तो दो समस्‍यायें तो सीधे-सीधे सामने हैं। पहली तो यह कि अगर इसे मक्‍ते का शेर माना जाये तो पहली पंक्ति में 'आम' की तुक नहीं आ रही है, दूसरी यह कि दोनों पंक्तियों का मात्रिक वज्‍़न सीमा से बाहर है और अलग अलग है।
मुफ़रद बह्र में नये शाइर के लिये 8 रुक्‍न की बह्र को अलग रखें तो हर पंक्ति का कुल वज्‍़न 28 की सीमा में हो सकता है।
लयात्‍मक संधि को विचार में रखें तो वर्तमान रदीफ़ काफिये को लेकर इस ग़ज़ल में 'आमौर सही' 'दामौर सही' 'शामौर सही' का प्रभाव हर शेर में आयेगा ही अत: जो भी बह्र ली जाये उसके अंत में 2222 मिलना ही चाहिये जो कि जि़हाफ़ का उपयोग किये बिना संभव नहीं है। शुरुआत में ही जिहाफ़ की बात करना अनुचित लग रहा है इसलिये अभी लयात्‍मक संधि और जिहाफ़ की बात नहीं करते, इन्‍हें फिर देखेंगे।
लयात्‍मक संधि को विचार में न रखें तो वर्तमान रदीफ़ काफिये को लेकर इस ग़ज़ल में अरकान मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन या 1222, 1222, 1222, 1222 ही हो सकते हैं तो स्‍वाभाविक है कि प्रत्‍येक पंक्ति का प्रथमाक्षर मात्रिक वज्‍़न 1 लिये हुए होना चाहिये।
यह तथाकथित ग़ज़ल एक चेतावनी है कि ग़ज़ल कहने के लिये पहले ग़ज़ल विधा का आधार ज्ञान प्राप्‍त करना आवश्‍यक है और रदीफ़, काफिया तथा बह्र के चयन में बहुत सावधानी की जरूरत होती है अन्‍यथा उस्‍तादों के लिये भी समस्‍या खड़ी हो जाती है कि अब इसका क्‍या करें। समस्‍या कठिन है सामने लेकिन प्राप्‍त तथाकथित ग़ज़ल को एक मुकम्‍म्‍ल ग़ज़ल में परिवर्तित किया जा सका तो यह एक और कदम होगा ग़ज़ल कहने का। अनुभवी शाइरों को अलिफ़-वस्‍ल की आदत होती है इसलिये इस रदीफ़ काफिये में उनके लिये कठिनाई ज्‍यादह है।
देखें एक अनघड़ ग़ज़ल को आप सबका सहयोग क्‍या रूप देता है। प्रयास अवश्‍य करें।

यह देखने के बाद कि 'और सही' का रदीफ़ तंग कर रहा है मैनें एक ग़ज़ल उदाहरणस्‍वरूप 'रास्‍ते की धूल' पर लगाई है। उसे आधार बना कर बहुत से नये विकल्‍प खुल जायेंगे ऐसा मेरा विश्‍वास है। उस ग़ज़ल में रदीफ़ में 'लग जाये' को 'लग जायें' में परिवर्तित करके शेर कहें, 'लग जाये' को 'हो जाये' या 'कर जाये' में परिवर्तित कर शेर कहें, 'लग जाये' को 'होता है', 'लगता है', 'होता था', 'लगता था', 'कहता है' या 'कहता था' करके शेर कहें। हॉं रदीफ़ के साथ 'म' में समाप्‍त होने वाले काफियों का चयन ध्‍यान से करें वरना व्‍याकरण गड़बड़ हो जायेगी।

तक्‍तीअ का खाका यह है:

फ़ा

लुन्

फ़ा

लुन्

फ़ा

लुन्

फ़ा

लुन्

1

2

2

2

1

2

2

2

1

2

2

2

1

2

2

2

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

शेर को पढ़ते समय मफ़ा ई लुन्, मफ़ा ई लुन्, मफ़ा ई लुन्, मफ़ा ई लुन् के टुकड़ों में पढ़ें। मफ़ाईलुन एक साथ पढ़ने में एक गंभीर त्रुटि हो सकती है मफ़ाईलुन को मफ़ाइलुन पढ़ने की और सबकुछ गड़बड़ा जायेगा।

यह ग़ज़ल प्राप्‍त हुई है श्री संदेश दीक्षित से जिनका संक्षिप्‍त परिचय कुछ यूँ है:

Sandesh
मथुरा (उत्तर प्रदेश) की पावन धरती से शुरू होकर राजस्थान से होते हुए, बेंगेलोर की दौड़ती भागती जिंदगी में समाये संदेश दीक्षित पेशे से एक बहुराष्‍ट्रीय कंपनी में शोध एवें विकास इंजीनियर हैं। कविता लिखने का शौक है लेकिन उस से कही ज्यादा पढने का। कविता लिखने के साथ साथ ज्योतिष,फोटोग्राफी और घूमना आदतों में शुमार है। कविता हिंदी के प्रति प्रेम से शुरू हुई, सिर्फ अपने लिए लिखते हैं लेकिन हर कवि की भांति चाह कि लोग इनकी कविता पढ़ें और मार्गदर्शन दें। इसी प्रयोजन के लिए आप सबके सामने उपस्थित हैं। आपके विचार इनकी प्रेरणा बनें ऐसी कामना है।

Wednesday, April 28, 2010

हरकीरत 'हीर' की ग़ज़ल पर चर्चा-समापन

पिछली पोस्‍ट पर दी गयी ग़ज़ल पर हुई चर्चा के उपरान्‍त हरकीरत 'हीर' जी ने अपनी ग़ज़ल का जो अंतिम रूप दिया है वह उनसे प्राप्‍त हुआ है। ग़ज़ल पर सबने अपनी अपनी बात रखी लेकिन ग़ज़ल पर आखिरी निर्णय स्‍वाभाविक है कि उसीका रहना चाहिये जिसकी ग़ज़ल है। इसमें और प्रचलित इस्‍सलाह व्‍यवस्‍था में एक अंतर स्‍पष्‍ट है कि इस व्‍यवस्‍था में ग़ज़लगो किसी उस्‍ताद विशेष से बॅधा नहीं है इसलिये उसके लिये इस्‍सलाह स्‍वीकार करना या न करना संकोच का विषय नहीं है।
हरकीरत 'हीर' से प्राप्‍त अंतिम रूप निम्‍नानुसार है:
१-१ मतला
कभी खुद मान जाते हैं कभी खुद रूठ जाते हैं
अदा से नाज़ से वो दिल हमारा लूट जाते हैं
१-२
नज़र जो मुन्तज़िर होती हम भी लौट ही आते
घरौंदे ये उम्मीदों के, भला क्यूँ टूट जाते हैं ..?
१-३
शजर हम ने लगाए तो, वो अक्सर सूख जाते हैं
जहाँ हमने मुहब्बत की शहर ही छूट जाते हैं
१-४
जफा देखी वफा देखी जहां की हर अदा देखी
छुपा चहरे नकाबों में चमन वो लूट जाते हैं
१-५
वो कश्ती हूँ बिखरती जो रही बेबस, हवाओं से
बहाना था वगरना दिल कहाँ यूँ टूट जाते हैं
१-६
सदा जो मुस्कुरा कर हैं, कभी देते सनम मुझको
इशारों ही इशारों में, मिरा दिल लूट जाते हैं
१-७
वो जब नज़दीक होते हैं, दिले-मुज़तर धड़कता है
जुबां खामोश रहती है तअश्शुक़ फूट जाते हैं
१-८
घरौंदे साहिलों पर तुम बना लो शौक से लेकिन
बने हों रेत से जो घर, वो अक्सर टूट जाते हैं
१-९ मक्ता
चलो बज़्मे-सुखन में हो गया ये मरतबा अपना
तेरे अश’आर भी अब ’हीर’ महफ़िल लूट जाते हैं
अब अगली पोस्‍ट सोमवार दिनांक 3 मई का लगेगी जिसमें मेरी कोशिश है कि ग़ज़ल क्‍या है इस विषय पर एक संक्ष्प्ति पाठ भी दिया जा सके। इस पाठ की आवश्‍यकता इसलिये पड़ी कि जो ग़ज़ल प्राप्‍त हुई है वह अपने आप में एक उदाहरण है कि ग़ज़ल का प्रारंभिक ज्ञान प्राप्‍त किये बिना भी ग़ज़ल कहने का साहस कुछ लोग करते हैं और ऐसे में क्‍या होता है।

Thursday, April 22, 2010

हरकीरत 'हीर' की ग़ज़ल पर चर्चा

यह ब्‍लॉग जब सुरक्षित किया था, तब ऐसा अनुमान नहीं था कि ब्‍लॉग को ईमानदारी से कायम रखना सरल काम नहीं, फिर भी इसके रूप में अपने लिये एक काम निर्धारित कर लिया था, वह आज प्रारंभ हो रहा है।

इंटरनैट का मायाजाल बड़ा विचित्र है, एक सम्‍मोहक शक्ति लिये हुए, बिल्‍कुल भँवर की तरह जो पहले आकर्षित करती है और फिर अपनी गहराईयों में ले जाती है, ऐसी गहराईयों में जहॉं इंसान समय-संतुलन खो बैठता है। बस इसी समय-संतुलन की समस्‍या मुझे अब तक इस ब्‍लॉग को आरंभ करने से रोके हुए थी। बीच में एक अच्‍छा प्रस्‍ताव आया वीनस केसरी की ओर से 'आईये एक शेर कहें' के नाम से सीमित दायरे के एक ब्‍लॉग का जो इसी समय-संतुलन के भंवर-जाल में खोकर रह गया।

कदम-दर-कदम की परिकल्‍पना मुख्‍यत: इस विचार पर केन्द्रित रही कि इंटरनैट पर ग़ज़ल कहने संबंधी आधार ज्ञान बड़ी मात्रा में उपलब्‍ध है और सहज पहुँच के कारण ग़ज़ल कहने का शौक बढ़ने की पूरी-पूरी संभावना है लेकिन अधिकॉंश सीखने वाले; विशेषकर वे जो आधार ज्ञान रखते हैं लेकिन ग़ज़लगोई के लिये आवश्‍यक परिपक्‍वता प्राप्‍त करने के लिये; विधिवत् क्रमानुसार पाठ पढ़ने के स्‍थान पर कुछ कहकर उसपर टिप्‍पणियों के माध्‍यम से सीखने के इच्‍छुक हैं। सोचा कि क्‍यूँ न जो कहा उसे पोस्‍ट कर उसपर चर्चा आमंत्रित की जाये और चर्चा के माध्‍यम से सीखते हुए अपनी ग़ज़ल को ऐसा रूप दिया जाये कि वह पूर्ण ग़ज़ल मानी जा सके।

स्‍वाभाविक है कि चर्चा होगी तो ऐसी टिप्‍पणियॉं भी आयेंगी जो क्षणिक रूप से आहत भी करें, लेकिन आहत होने के इस चरण से निकलना इस हद तक ज़रूरी होता है कि हमें अपने कहे को खारिज करना आ जाये। जिस दिन खुद के कहे को खारिज करना आ गया, उसी दिन कहन की परिपक्‍वता की दिशा में शाइर कदम-दर-कदम बढ़ने लगता है और अगर खुद को खारिज करना नहीं आया तो मेरा मानना है कि कहन ठहर जाती है। कदम-दर-कदम बढ़ते हुए अगर कुछ शाइर अपनी मज़बूत पहचान बना सके तो मेरी समझ में मेरा प्रयास सफल हो जायेगा।

आरंभ में इस ब्‍लॉग पर केवल वही ग़ज़लें चर्चा के लिये लगाई जायेंगी जो स्‍वत: प्रेरणा से भेजी जायेंगी। जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे अन्‍य विकल्‍प भी खुलते जायेंगे।

ग़ज़ल भेजने के लिये कोई बंधन नहीं है, हॉं ग़ज़ल ई-मेल के माध्‍यम से भेजी जा सकती हैं और टिप्‍पणी के रूप में भी। स्‍वाभाविक है कि बहुत सी ग़ज़लों पर एक साथ चर्चा करना कठिन होगा इसलिये प्रत्‍येक सप्‍ताह एक ही ग़ज़ल पर चर्चा आयोजित हो सकेगी। ग़ज़ल के साथ शाइर अपना नाम प्रकाशित करना चाहते हैं या नहीं यह उनका निजि विषय रहेगा अत: इस विषय में कृपया ग़ज़ल भेजते समय ही इंगित करदें।

आप मुझसे सहमत होंगे कि टिप्‍पणियों में संयत भाषा का उपयोग जरूरी होता है अन्‍यथा कभी-कभी भावनायें आहत हो जाती हैं और उनपर कोई मरहम काम नहीं करती। स्‍वाभाविक है कि ऐसी टिप्‍पणियों का कोई महत्‍व न होगा जिनमें अशआर के तकनीकि व कहन पक्ष पर कुछ न कहा गया हो।

पहली ग़ज़ल हरकीरत 'हीर' जी से प्राप्‍त हुई है इसे ग़ज़ल के रूप में स्‍वीकार करने में क्‍या समस्‍याऍं हैं इस पर चर्चा के लिये प्रस्‍तुत है। कृपया टिप्‍पणी देते समय शेर के पहले लिखा क्रमांक अवश्‍य दे दें जो ग़ज़ल क्रमांक-शेर क्रमांक है:

1-1
कभी वो मुस्कुराते हैं ,कभी वो रूठ जाते हैं
बड़े ज़ालिम हैं दिल वाले तसव्वुर लूट जाते हैं

1-2
नज़र जो मुन्तजिर होती कभी हम लौट ही आते
परिंदों के घरौंदों से , क्यूँ घर टूट जाते हैं...?

1-3
लगाये जो शजर हमने वो अक्सर सूख जाते हैं
जहाँ हमने मुहब्बत की शहर वो छूट जाते हैं

1-4
जफ़ा देखी वफ़ा देखी जहाँ की हर अदा देखी
छुपा चहरे नकाबों में , हया वो लूट जाते हैं

1-5
वो कश्ती हूँ बिखरती जो रही बेबस हवाओं से
बहाना था वगरना दिल कहाँ यूँ टूट जाते हैं

1-6
कभी जो मुस्कुरा के वो सदायें मुझको देते हैं
इशारों ही इशारों में , मेरा दिल लूट जाते हैं

1-7
बड़े मदहोश लम्हे थे सनम जब सामने आये
जुबां खामोश रहती है तअश्शुक़ फूट जाते हैं

1-8
घरौंदे साहिलों पर तुम बना लो शौक से लेकिन
बने हों रेत से जो घर , वो अक्सर टूट जाते हैं

1-9
कभी मत्ले पे होती वाह कभी मक्ता लुभाता है
अश'आर तेरे यूँ 'हीर' महफ़िल लूट जाते हैं ।