प्रस्तुत ग़ज़ल पर चर्चा के पहले इस विधा को न जानने वालों के लिये जरूरी होगा कि आवश्यक बातें समझ लें जो इस प्रकार हैं:
कोई काव्य ग़ज़ल कहा जा सके इसके लिये जरूरी है कि वह ग़ज़ल के आधार नियमों का पालन करे। ग़ज़ल के आधार नियम हैं बह्र, रदीफ़, काफि़या। ग़ज़ल बिना रदीफ़ के भी कही जा सकती है, ऐसी स्थिति में बह्र और काफिया का पालन न्यूनतम आवश्यकता है। इसके बाद ग़ज़ल सराही जा सके इसके लिये आवश्यक होता है कि हम जो कहना चाह रहे हैं वह स्पष्ट रूप से समझ मे आ रहा हो।
ग़ज़ल कहने की दुनिया में कदम रखने वाले के लिये उचित रहता है कि वह ग़ज़ल सुनने और पढ़ने में अपनी रुचि पैदा करे। इससे आरंभिक शेर कहने में मदद मिलेगी। प्राथमिक प्रयासों में उचित रहेगा यदि किसी ऐसी प्रचलित सुनी हुई ग़ज़ल को आधार बनायें जिसे आप गुनगुना सकें। इसी गुनगुनाने को आधार बना कर छिटपुट शेर कहने से ठीक-ठाक शुरूआत की जा सकती है।
शुरू में सरल बह्र पर ही काम करना ठीक रहता है। शेर कहने से पहले जरूरी हो जाता है कि जो शेर हम कहने जा रहे हैं उसके विचार को स्पष्ट कर लें। अच्छा काव्य कहने के लिये अच्छा शब्द सामर्थ्य आवश्यक है लेकिन अनावश्यक रूप से जटिल शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिये। सटीक शब्दों का अपना ही महत्व होता है लेकिन मात्र अपना भाषा-ज्ञान जताने के लिये सामान्य प्रचलन के शब्दों से हटना ठीक नहीं होता है।
उचित होगा कि नये शाइर ग़ज़ल के विषय में आधार जानकारी भी अवश्य प्राप्त करलें। जिसमें बह्र की आधार जानकारी भी सम्मिलित है। कुछ जानकारी अथ-कथित पर आज ही पोस्ट की है।
ग़ज़ल कहने के चरण:
- अगर किसी प्रचलित ग़ज़ल को आधार बनाया गया है तो स्पष्ट है कि बह्र, रदीफ़ और काफि़या तो निश्चित हो ही गया होगा अन्यथा अब रदीफ़ व काफिया निर्धारित करलें जिनका पालन आप इस ग़ज़ल में करनेवाले हैं। बह्र भी निर्धारित कर लें तो ठीक रहेगा।
- इसके बाद पहली बात यह जरूरी हो जाती है कि एक शेर का कच्चा रूप लिख लिया जाये, बेहतर होगा कि लिखते समय गुनगुनायें और आवश्यकतानुसार शब्दों को ऐसे व्यवस्थित करें कि गुनगुनाने में सरल प्रवाह हो। अगर सबसे पहले ग़ज़ल के मत्ले का शेर लिख सकें तो और बेहतर।
- पहला शेर (यहॉं यह जरूरी नहीं कि यह मत्ले का शेर हो) लिखने के बाद पहला काम होता है शेर से काफिया और रदीफ़ अलग करना, यह काम अप्रत्यक्ष रूप से तो शाइर कर ही चुका होता है लेकिन इसे प्रत्यक्ष रूप से अलग करना जरूरी है।
- जब रदीफ़ व काफिया अलग करलें तो उसका मात्रिक क्रम देखें। यह मात्रिक क्रम निर्धारित करेगा कि जो बह्र चुनी जानी है उसके अंत में कौनसे रुक्न रहेंगे। एक बार यह पहचान लेने से संभावित बह्रों का दायरा सीमित हो जाता है और आपको बह्रों के बह्र में डूबना नहीं पड़ता (उर्दू में बह्र का एक अर्थ समंदर भी हैं)।
- संभावित बह्रों में से वह बह्र ग़ज़ल कहने के लिये चुनें जो मात्रिक क्रम और कुल मात्रिक भार में आपके कहे शेर की पंक्तियों से सबसे ज्यादह मेल खाती हो। एक से ज्यादह बह्र में अनिर्णय की स्थिति होने पर प्राथमिकता ऐसी बह्र को दें जिसके अरकान आप सहजता से गुनगुना पा रहे हों या प्रवाह में पढ़ पा रहे हों।
- अब ग़ज़ल का काफिया देखकर उसके अनुरूप शब्दों का चयन कर कहीं हाशिये में लिख लें।
- अब आपके पास बह्र भी है, काफिया भी है और रदीफ़ भी; इसके आधार पर प्रयास कीजिये अशआर कहने का।
- हो सकता है पहली ग़ज़ल के शेर कहने में हफ़्ता भर या और ज्यादह समय भी लग जाये। लगने दें, जल्दी न करें, बह्र रदीफ़ काफिया दिमाग़ में लिये गुनगुनाते रहें-गुनगुनाते रहें। दिन में कितनी ही बार आपके मन में कई विचार आयेंगे उन्हें शेर के रूप में कहने का प्रयास करें। कहते रहें, लिखते रहें। इसी तरह ग़ज़ल का पहला रूप पूरा होगा।
- ग़ज़ल के रूप का फुर्सत में परीक्षण करें और हर शेर को देखें कि उसे और बेहतर कैसे किया जा सकता है।
- जब आप किसी शेर के प्रति आश्वस्त हो जायें तो तक्तीअ करके देखलें कि वह बह्र से बाहर तो नहीं हो रहा है।
- धीरे-धीरे आपको ग़ज़ल इस लायक हो जायेगी कि उसपर किसी अनुभवी ग़ज़लकार की सलाह ले सकें, निसस्ंकोच लें।
- यह कभी न भूलें कि ग़ज़ल कहना एक सतत् अभ्यास है, अभ्यास करते रहें।
जो ग़ज़ल प्राप्त हुई है वह इस प्रकार है:
2-1
यूँ तो चॉंद में इतने दाग हैं, फिर एक दाग और सही
खूब लगे इलज़ाम इश्क पर मेरे, फिर एक इलज़ाम और सही
2-2
हर जाम का हर याद से हिसाब लूँ, हर अश्क का हर शाम से
तेरी याद गर ये शराब भुलाये, तो फिर एक जाम और सही
2-3
हर साँस पे तेरा नाम लिखा, जिंदगी तुझ पर फ़ना हुयी
खून-ऐ-जिगर जो झूठ है, तो ले मौत तेरे नाम और सही
2-4
सख्ती-कशाब-ऐ-इश्क से तुम खूब लड़े हो ‘शादाब’
अब जो जिस्त दुश्मन हुई,फिर एक इंतकाम और सही
प्रस्तुत ग़ज़ल, वर्तमान स्थिति में ग़ज़ल के रूप में बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है इसलिये सीखने वालों के लिये बहुत कुछ दे सकती है। प्रेषक का परिचय तो अभी मैं नहीं दे रहा हूँ लेकिन अगर उन्होंने ने चाहा तो परिचय भी दिया जायेगा। संभवतया: प्रेषक की यह पहली ग़ज़ल है और उन्हें किसी का मार्गदर्शन भी प्राप्त नहीं है इस विधा में।
इसमें सबसे पहले रदीफ़ पहचानना जरूरी है। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि प्रस्तुत ग़ज़ल मे रदीफ़ 'और सही' है जो एक शब्द समूह के रूप में अंत में पहले शेर में दोनों पंक्तियों में और अन्य आशआर की दूसरी पंक्ति में आ रहा है।
प्रस्तुत ग़ज़ल को यदि कच्चा रूप माना जाये तो इसमें (अभी नुक्ते की बात भूल जायें तो) काफिया बन रहा है 'आम' यानि जो श्ाब्द इसमें बतौर काफिया इस्तेमाल होंगे उनका आखिरी व्यंजन होगा 'म' और उस व्यंजन के पहले का स्वर होगा 'आ'। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस ग़ज़ल में बतौर काफिया इस्तेमाल होने योग्य शब्द होंगे - आम, काम, घाम, चाम, जाम, थाम, दाम, धाम, नाम आदि पर समाप्त होने वाले शब्द। ऐसे शब्द अकारादि क्रम में कहीं मार्जिन में लिख लें जिससे उपलब्ध काफिये ज्ञात रहें।
अब काफिया और रदीफ़ का मात्रिक क्रम देख लिया जाये जिससे बह्र निर्धारण में सहायता मिले।
प्रस्तुत ग़ज़ल में 'आम और सही' का मात्रिक क्रम है 212112 या 21222 । अब इस ग़ज़ल के लिये जो बह्र ली जा सकती हैं उनका निर्धारण आवश्यक होगा। बह्र एक मात्रिक क्रम होता है, इसलिये इस ग़ज़ल के लिये वही बह्र ली जा सकेंगी जिसके अंत में 212112 या 21222 का क्रम मिल सके। इस काफि़या रदीफ़ संयोजन में एक अच्छी गुँजाईश है कि 'आम' की तुक में 'और सही' का 'और' मिलकर 'आमौर सही' का प्रभाव दे रहा है (ऐसा लयात्मक संधि के कारण है) जिसके कारण 2222 में समाप्त होने वाली बह्र भी उपयुक्त रहेंगी। यह वह स्थिति है जहॉं नया शाइर अटक सकता है।
अगर मुफ़रद बह्रों को देखें तो बह्रे हजज में वर्तमान ग़ज़ल का हल है जो इस प्रकार है:
मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन या 1222, 1222, 1222, 1222
प्राप्त ग़ज़ल पहली नज़र में ही दिख रही है कि बह्र से बाहर है और इसकी बह्र निकालना संभव न होगा लेकिन फिर भी प्रयास कर देखते हैं कि इसके लिये संभावित बह्र क्या बनती है। इसके लिये प्राप्त अशआर की तक्तीअ करके देखते हैं:
पहला शेर है 2-1
यूँ | तो | चाँ | द | में | इत | ने | दा | ग | है | फिर | एक | दा | ग | औ | रस | ही | ||
2 | 2 | 2 | 1 | 2 | 2 | 2 | 2 | 1 | 2 | 2 | 2 | 2 | 1 | 2 | 2 | 2 | ||
खू | बल | गे | इल | ज़ा | म | इश् | कप | र | मे | रे | फिर | एक | इल | ज़ा | म | औ | रस | ही |
2 | 2 | 2 | 2 | 2 | 1 | 2 | 2 | 2 | 2 | 2 | 2 | 2 | 2 | 2 | 1 | 2 | 2 | 1 |
पहले ही शेर में देखें तो दो समस्यायें तो सीधे-सीधे सामने हैं। पहली तो यह कि अगर इसे मक्ते का शेर माना जाये तो पहली पंक्ति में 'आम' की तुक नहीं आ रही है, दूसरी यह कि दोनों पंक्तियों का मात्रिक वज़्न सीमा से बाहर है और अलग अलग है।
मुफ़रद बह्र में नये शाइर के लिये 8 रुक्न की बह्र को अलग रखें तो हर पंक्ति का कुल वज़्न 28 की सीमा में हो सकता है।
लयात्मक संधि को विचार में रखें तो वर्तमान रदीफ़ काफिये को लेकर इस ग़ज़ल में 'आमौर सही' 'दामौर सही' 'शामौर सही' का प्रभाव हर शेर में आयेगा ही अत: जो भी बह्र ली जाये उसके अंत में 2222 मिलना ही चाहिये जो कि जि़हाफ़ का उपयोग किये बिना संभव नहीं है। शुरुआत में ही जिहाफ़ की बात करना अनुचित लग रहा है इसलिये अभी लयात्मक संधि और जिहाफ़ की बात नहीं करते, इन्हें फिर देखेंगे।
लयात्मक संधि को विचार में न रखें तो वर्तमान रदीफ़ काफिये को लेकर इस ग़ज़ल में अरकान मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन या 1222, 1222, 1222, 1222 ही हो सकते हैं तो स्वाभाविक है कि प्रत्येक पंक्ति का प्रथमाक्षर मात्रिक वज़्न 1 लिये हुए होना चाहिये।
यह तथाकथित ग़ज़ल एक चेतावनी है कि ग़ज़ल कहने के लिये पहले ग़ज़ल विधा का आधार ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है और रदीफ़, काफिया तथा बह्र के चयन में बहुत सावधानी की जरूरत होती है अन्यथा उस्तादों के लिये भी समस्या खड़ी हो जाती है कि अब इसका क्या करें। समस्या कठिन है सामने लेकिन प्राप्त तथाकथित ग़ज़ल को एक मुकम्म्ल ग़ज़ल में परिवर्तित किया जा सका तो यह एक और कदम होगा ग़ज़ल कहने का। अनुभवी शाइरों को अलिफ़-वस्ल की आदत होती है इसलिये इस रदीफ़ काफिये में उनके लिये कठिनाई ज्यादह है।
देखें एक अनघड़ ग़ज़ल को आप सबका सहयोग क्या रूप देता है। प्रयास अवश्य करें।
यह देखने के बाद कि 'और सही' का रदीफ़ तंग कर रहा है मैनें एक ग़ज़ल उदाहरणस्वरूप 'रास्ते की धूल' पर लगाई है। उसे आधार बना कर बहुत से नये विकल्प खुल जायेंगे ऐसा मेरा विश्वास है। उस ग़ज़ल में रदीफ़ में 'लग जाये' को 'लग जायें' में परिवर्तित करके शेर कहें, 'लग जाये' को 'हो जाये' या 'कर जाये' में परिवर्तित कर शेर कहें, 'लग जाये' को 'होता है', 'लगता है', 'होता था', 'लगता था', 'कहता है' या 'कहता था' करके शेर कहें। हॉं रदीफ़ के साथ 'म' में समाप्त होने वाले काफियों का चयन ध्यान से करें वरना व्याकरण गड़बड़ हो जायेगी।
तक्तीअ का खाका यह है:
म | फ़ा |
ई |
लुन् |
म |
फ़ा |
ई |
लुन् |
म |
फ़ा |
ई |
लुन् |
म |
फ़ा |
ई |
लुन् |
1 |
2 |
2 |
2 |
1 |
2 |
2 |
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शेर को पढ़ते समय मफ़ा ई लुन्, मफ़ा ई लुन्, मफ़ा ई लुन्, मफ़ा ई लुन् के टुकड़ों में पढ़ें। मफ़ाईलुन एक साथ पढ़ने में एक गंभीर त्रुटि हो सकती है मफ़ाईलुन को मफ़ाइलुन पढ़ने की और सबकुछ गड़बड़ा जायेगा।
यह ग़ज़ल प्राप्त हुई है श्री संदेश दीक्षित से जिनका संक्षिप्त परिचय कुछ यूँ है:
मथुरा (उत्तर प्रदेश) की पावन धरती से शुरू होकर राजस्थान से होते हुए, बेंगेलोर की दौड़ती भागती जिंदगी में समाये संदेश दीक्षित पेशे से एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में शोध एवें विकास इंजीनियर हैं। कविता लिखने का शौक है लेकिन उस से कही ज्यादा पढने का। कविता लिखने के साथ साथ ज्योतिष,फोटोग्राफी और घूमना आदतों में शुमार है। कविता हिंदी के प्रति प्रेम से शुरू हुई, सिर्फ अपने लिए लिखते हैं लेकिन हर कवि की भांति चाह कि लोग इनकी कविता पढ़ें और मार्गदर्शन दें। इसी प्रयोजन के लिए आप सबके सामने उपस्थित हैं। आपके विचार इनकी प्रेरणा बनें ऐसी कामना है। |
धन्यवाद तिलक जी,
ReplyDeleteआपने जिस गहनता के साथ इस रचना की विवेचना की उसके लिए आपको साधुवाद,मेरे लिए ये विवेचना ग़ज़ल की दुनिया में पहला कदम रखने में सहायक होगी I आपने ठीक कहा,ग़ज़ल लिखने की तकनीक से मेरा परिचय अभी तक नहीं हुआ है ना ही कही से मार्गदर्शन प्राप्त हुआ ,अतः आपके द्वारा बताई गयी कुछ चीज़े अभी भी मेरी ज्ञानइन्द्रियों की पहुँच से बाहर सी लगती है I आपके द्वारा शुरू किया अथ-कथित ब्लॉग शायद ग़ज़ल की तक्निया समझने का पहला जरिया बने I आप मेरा परिचय दे सकते है आखिर में अपनी रचना को इस तरह अकेला नहीं छोड़ सकता ..आपका मार्गदर्शन बना रहे,यही दी अपेक्षा है
@अश्क जी
ReplyDeleteआपने एक और समस्या खड़ी कर दी है सुलझाने के लिये। ये ग़ज़ल मुझै प्राप्त हुई थी संदेश दीक्षित की ई-मेल (sandesh.mnit@gmail.com) के माध्यम से। सारा पत्राचार इसी मेल पर चला। अब आपने जिस पहचान से मेल किया है वह ले जाती है http://ashq.wordpress.com/ पर। वहॉं जाओ तो सारी पोस्ट मुंडा शनीचरी ने लगा रखी हैं। यह तथाकथित ग़ज़ल वहॉं भी है लेकिन हर जगह आपका उपनाम 'शादाब' नज़र आ रहा है। भाई यह गहन गंभीर राज क्या है? कुछ तो परदे हटायें, तो बात समझ में आये।
सन्देश दीक्षित,मुंडा शनिचरी और शादाब तीनो एक ही शख्श है ....आप मेरा परिचय http://ashq.wordpress.com/its-me/ पर देख सकते है ! असुविधा के लिए क्षमा चाहता हूँ !
ReplyDeleteसीखने के लिए और काम करने के लिए बढ़िया पोस्ट
ReplyDeleteउस्तादों से निवेदन है जज्दी कमेन्ट करें जिसे पढ़ कर हमें सीखने को मिले :)
पोस्ट के साथ साथ कमेन्ट भी कम रोचक नहीं है
शादाब जी का अपना परिचय देना रोचक रहा
मुंडा शनीचरी, शादाब, सन्देश, और अश्क
वाह सन्देश जी, मुझे लग रहा है आपने और भी कई रंग छुपा रखें :)
ग़ज़ल लेखन महज़ तुकबंदी नहीं है एक मुश्किल विधा है जिसे आसान शब्दों में समझाने के आपके प्रयास की जितनी सराहना की जाये कम है...इस विधा को समझने के लिए बहुत सहनशीलता की आवशयकता होती है और ये सतत अभ्यास द्वारा ही हासिल की जा सकती है...इस विधा में जिनती महनत करेंगे ये उतनी ही निखरेगी...एक अच्छा शेर कहने के लिए कभी एक उम्र भी काफी नहीं होती...एक मुशायरे के दौरान प्रसिद्द शायर रहत इन्दौरी साहब ने फ़रमाया था के "दोस्तों एक अच्छा शेर कहने के लिए कम से कम नौ महीने का वक्त लगता है" उनका इशारा प्रजनन की जटिल पक्रिया से गुजरने जैसी स्तिथि से था...
ReplyDeleteआपने जो ग़ज़ल उठाई है उसे पढ़ कर कुछ कहने में वक्त लगेगा...इसलिए थोड़े विश्राम के बाद फिर हाज़िर होता हूँ...
नीरज
मुंडा शनीचरी, शादाब, सन्देश, और अश्क जी द्वारा प्रेषित ग़ज़ल के भाव बहुत अच्छे लगे .....दिल से लिखी ग़ज़ल है .....
ReplyDeleteइंतज़ार है इसमें इस्लाह का .....
एकदम कक्षा की तरह... और मैं विद्यार्थी के जैसी... पहले शेर की दूसरी लाइन खटक रही है, इसे संतुलित करें न.
ReplyDeleteसीखने वाले सब तैयार बैठे हैं :)
ReplyDeleteतिलक जी आगाज़ करिये
भाई साहिब जिस सरल ढंग से आपने गज़ल का शुरुआती पाठ सिखाया है वो वाकई काबिले तारीफ है।मुझे आलिफ व्स्ल का अर्थ समझ नही आया अगर इसे विस्थार से बतायें तो बढिया होगा। आप गज़ल की तकनीक बता कर ब्लागजगत मेेक क्राँति लाने जैसा काम कर रहे हैं निस्संदेह इस से लोग बहुत कुछ सीखेंगे। मुझे भी आज कई बातें नई सीखने को मिली हैं। आपका धन्यवाद । इस गज़ल को कहने की कोशिश कर के देखती हूँ। लगता है इस पर इस्सलाह से बहुत कुछ सीख पायेंगे। शादाब जी की रचना के भाव अच्छे हैं। धन्यवाद और शुभकामनायें । कल फिर आती हूँ
ReplyDelete@वीनस
ReplyDeleteशेर के साथ बड़ी समस्या है निकले तो निकले नहीं तो पड़ा है मॉंद में। आज का दिन और स्वयं को पूरी तरह ग़ज़ल से स्वतंत्र रखने की कोशिश करूँगा जिससे शेर बाहर आने को मजबूर हो जाये, एक हो गया तो सभी आ जायेंगे। तब तक कुछ आप भी आने दें।
@निर्मला जी
यह तो आपको ज्ञात ही होगा कि उर्दू में अलिफ़ एक हर्फ है जो 'अ' स्वर का प्रभाव लिये है, इसलिये जब किसी लफ़्ज़ (जिसका अंतिम हर्फ शुद्ध व्यंजन हो) के बाद ऐसा लफ़्ज़ आये जिसका प्रारंभ अलिफ़ से हो तो अलिफ़ स्वयं गिरकर पिछले लफ़्ज़ में जुड़ जाता है और मात्रिक प्रभाव देता है।
यह तो वह हुआ जो मैनें पढ़ा और समझा उपलब्ध जानकारी से।
मेरा निजि अनुभव पढ़ने में यह रहा है कि ऐसा सभी स्वरों के साथ होता है केवल अलिफ़ के साथ नहीं। हिन्दी में स्वर और व्यंजन अलग हैं इसलिये इस विषय पर स्पष्टता है, उर्दू में क्या स्थिति है मुझे ज्ञात नहीं।
अब इसपर और प्रकाश डालने के लिये इस विषय पर मुझसे अधिक अध्ययन किये हुए शाइर ही मदद कर सकते हैं।
हाज़िर हूँ.
ReplyDeleteइस बीच और पढना नहीं हो पा रहा है लेकिन इस क्लास ने वो उमंग जगाई है कि कई बार पुनर्पाठ कर ' ग़ज़ल ' के व्याकरण की गहरायी में उतर रहा हूँ.
नीरज जी ने कितनी सही बात कही है. मैं भी नौ महीने का इंतज़ार करूंगा :) .
भाई साहिब मैने तो बहुत कोशिश की मगर मतला अइसे बना अगर सही है तो आगे और शेर भी कहूँ--
ReplyDeleteअगर हैं दाग इतने चाँद मे, एक दाग और सही
लगे इल्जाम इतने इश्क पर एक बार और सही
धन्यवाद और शुभकामनायें
तिलक राज जी, आपकी कक्षा से बहुत कुछ सिखा, और इस लेखन जगज़ में बिलकुल नया परिंदा होने के कारण और भी सीखना चाहता हूँ. इसी प्रयाश में आप से एक गुज़ारिश है की कृपया मेरे एक प्रयाश की भी आप इसी तरह विवेचना कर मेरा मार्ग दर्शन करें. प्रस्तुत है मेरी एक रचना...
ReplyDeleteदर्द-ए-वह्शत: पर ग़ज़ल लिखता हूँ,
पहले जैसा कहाँ मैं आज-कल लिखता हूँ|
फुरकत के पल दो पल तुझ-संग बिताये याद हैं,
पर कलम उठा कर वही, तन्हाई के पल लिखता हूँ|
तुम देखते हो चेहरे की हंसी को आशुफ्तः: से,
मैं आँखों की नमी, और उनकी हलचल लिखता हूँ|
वफ़ा की ना की, किसे पड़ी है वाहिमः:-ए-बाज़ार में,
वज्द की कहानी तू लिख, मैं हर्जः-ए-ग़ज़ल लिखता हूँ|
दर्द-ए-वह्शत: पर ग़ज़ल लिखता हूँ,
पहले जैसा मैं कहाँ आज-कल लिखता हूँ||
रचनाकार – ‘आनंद मिश्र’
शब्दार्थ:
वह्शत: – अकेलापन, loneliness
आशुफ्तः: – असमंजस में, perplexed, confused
वाहिमः: – दिखावटी, fancy, whim, imagination
वज्द: – बे-इन्तेहा प्यार, excessive love, ecstasy, rapture
हर्जः: – फ़िज़ूल, nonsense, absurd, vain, frivolous
बात गजल सीखने की थी और इस मामले में सभी को अपनी बात रखने का अवसर दिया जाना था. मुआफ करें तिलक जी, यही नहीं हुआ. हरकीरत जी के बाद अब अश्क की रचना पर भी ब्लाग स्वामी होने की हैसियत से सभी कुछ आपने ही सम्पन्न कर डाला. फिर बाकी लोगों के लिए करने को कुछ बचा ही क्या.
ReplyDeleteमैं जसारत कर रहा यह कहने की कि आपको तो अध्यक्षीय वक्तव्य देना था सबसे अंत में. लेकिन भाई ब्लाग आपका और हमारे लिए यही काफी हुआ कि हमें इस ब्लाग पर आ कर अपनी राय देने का न्योता प्राप्त होता है.
मेरी यह बात हो सकता है आपको बुरी लगे लेकिन आप स्वयं सोचें कि जब संशोधन आप कर चुके होते हैं, ऐसी स्थिति में हमारे लिए एक समस्या होती है कि हम उक्त रचना पर विचार दें या आपके संशोधन की कतरब्योंत (यही शब्द प्रयोग किया है मैं ने) करें.
आपने अश्क की गजल पर सारा काम पूरा कर लिया, अब हमारा सिर्फ एक फर्ज़ बचता है, वो पूरा किए देते हैं-----------------
"आपने बहुत सलीके से गजल संवारी".
@आदरणीय सर्वत साहब
ReplyDeleteइतना आसान न होगा बच पाना।
पिछली बार हरकीरत 'हीर' की ग़ज़ल पर जरूर मैनें ग़लती की थी एकमुश्त सुझाव देने की, इस बार अभी तक बचा हुआ हूँ, ग़ज़ल पर अभी तक किसी से कोई सुझाव प्राप्त ही नहीं हुआ है, मैं भी कुछ माकूल सुझाव देने की स्थिति नहीं पा रहा था। दो दिन इसका इंतज़ार कर एक उदाहरण भर दिया है यह सुझाव नहीं है, होता तो इसी ब्लॉग पर आता। हॉं जो रदीफ़ प्राप्त ग़ज़ल का था 'और सही' वह कठिनाई पैदा कर रहा है, ऐसा मुझे आभासित हुआ, तो कुछ वैकल्पिक रदीफ़ दिये हैं और बह्र इसलिये निर्धारित कर दी कि प्राप्त ग़ज़ल की बह्र स्पष्ट नहीं थी या यूँ कहें कि थी ही नहीं।
सुझावों का बेसब्री से इंतज़ार है।
मूक बना अपनी एक कृति या कहूँ की जज्बातों की जो मिटटी इक्कठी की है उसका किसी पात्र में रूप परिवर्तन देख रहा हूँ ......बस प्रतीक्षा है की ये पात्र जल्दी बने ताकि यहाँ बहता ज्ञान उसमें जल्दी समां सकूँ !!!
ReplyDeleteएक प्रश्न अनौपचारिक रूप से आया कि अब चूँकि बह्र निर्धारित हो गयी है क्यूँ न रदीफ़ काफि़या भी तय हो जाये जिससे मत्ले से मक्ते तक के सुझाव आ सकें। अभी तक इस विषय पर कोई औपचारिक सुझाव नहीं आया है लेकिन आज तीसरा दिन हो चला, मुझे यह सुझाव उचित लग रहा है और इसपर काम करते हुए रदीफ़ काफिया इस तरह तय किया है।
ReplyDeleteकाफि़या- 'ओ' आ स्वर के साथ यानि आओ, खाओ, गाओ, छाओ, जाओ, लाओ, पाओ आदि
रदीफ़- तुम
बह्र तो तय है ही 1,2,2,2 x 4
तिलक जी ,
ReplyDeleteमुंडा शनीचरी, शादाब, सन्देश, अश्कजी के जो मतले के शेर के भाव हैं वो कहन के अनुसार सही नहीं लगते .....
" यूँ तो चॉंद में इतने दाग हैं, फिर एक दाग और सही..."
पहले तो चाँद में इतने दाग हैं ही नहीं दुसरे इक और दाग देने की बात पर वाह वाही नहीं मिलने वाली ....इसलिए मतला भी भाव से हट जायेगा .....
अब सर्वत जी मलते का शे'र रखें तो हम भी कोशिश करें ......!!
लीजिये सर्वत साहब अब तो बाकायदा आपको मत्ले का शेर सुझाने का जिम्मा सौंप दिया गया है।
ReplyDeleteतिलकजी !
ReplyDeleteएक अगज़ल (जो ग़ज़ल नहीं है) को ग़ज़ल बनाने की आपकी ज़द्धोज़हद सराहनीय है. संदेशजी ने एक चुनौती रख दी है हम सब के सामने. स्पष्ट ही दिखाई दे रहा है कि इस ग़ज़ल में आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे. सारे या अधिकाँश परिवर्तन हम ही कर देंगे तो फिर संदेशजी कब और कैसे सीखेंगे ? इसलिए मेरा सुझाव है कि आप द्वारा दी गयी इस्लाह पर संदेशजी खुद अपनी ग़ज़ल को व्यवस्थित कर के पुनः अवलोकनार्थ पोस्ट करे.
इस ग़ज़ल की आत्मा "और सही" में बसी है. इस रदीफ़ को बदले बिना सिर्फ काफिया और बहर बदल कर इसे ठीक किया जाय तो कैसा रहेगा ?
मुकम्मल बहरों के बारे में मेरी जानकारी शून्य है. इसलिए मैं ज्यादा पंचायती करने की स्थिति में नहीं हूँ. मगर जबसे ये ग़ज़ल पढी है तब से एक और ग़ज़ल मेरे ज़हन में लगातार घूम रही है. संदेशजी से निवेदन है कि इस ग़ज़ल को गुनगुनाएं और उस मीटर पर अपनी ग़ज़ल को साधने का प्रयास करे. यह ग़ज़ल किन्हीं "मुराद" साहब ने कही है और चित्रा सिंह जी ने इसे अपनी खूबसूरत आवाज़ में गाया है. ग़ज़ल इस प्रकार है:
मेरा दिल भी शौक़ से तोड़ो
एक तजुर्बा और सही
लाख खिलौने तोड़ चुके हो
एक खिलौना और सही
रात है ग़म की आज बुझा दो
जलता हुआ हर एक चिराग
दिल में अन्धेरा हो ही चुका है
घर में अन्धेरा और सही
दम है निकलता इक आशिक का
भीड़ है आकर देख तो लो
लाख तमाशे देखे होंगे
एक नज़ारा और सही
खंज़र ले कर सोचते क्या हो
क़त्ल "मुराद" भी कर डालो
दाग हैं सौ दामन पे तुम्हारे
एक इजाफा और सही
फिर आपका मतला ये हो सकता है:
"चाँद कहे मैं दागी हूँ तो
ढूंढ सितारा और सही
खूब लगे इलज़ाम इश्क पर
एक तुम्हारा और सही "
और काफिये होंगे किनारा, सहारा, इशारा, हमारा, गुजारा, बिचारा आदि आदि. अब इसकी बहर तलाशना और तक्तीअ करना तिलकजी के जिम्मे.
सॉरी तिलकजी !