पिछली पोस्ट पर दी गयी ग़ज़ल पर हुई चर्चा के उपरान्त हरकीरत 'हीर' जी ने अपनी ग़ज़ल का जो अंतिम रूप दिया है वह उनसे प्राप्त हुआ है। ग़ज़ल पर सबने अपनी अपनी बात रखी लेकिन ग़ज़ल पर आखिरी निर्णय स्वाभाविक है कि उसीका रहना चाहिये जिसकी ग़ज़ल है। इसमें और प्रचलित इस्सलाह व्यवस्था में एक अंतर स्पष्ट है कि इस व्यवस्था में ग़ज़लगो किसी उस्ताद विशेष से बॅधा नहीं है इसलिये उसके लिये इस्सलाह स्वीकार करना या न करना संकोच का विषय नहीं है।
हरकीरत 'हीर' से प्राप्त अंतिम रूप निम्नानुसार है:
१-१ मतला
कभी खुद मान जाते हैं कभी खुद रूठ जाते हैं
अदा से नाज़ से वो दिल हमारा लूट जाते हैं
१-२
नज़र जो मुन्तज़िर होती हम भी लौट ही आते
घरौंदे ये उम्मीदों के, भला क्यूँ टूट जाते हैं ..?
१-३
शजर हम ने लगाए तो, वो अक्सर सूख जाते हैं
जहाँ हमने मुहब्बत की शहर ही छूट जाते हैं
१-४
जफा देखी वफा देखी जहां की हर अदा देखी
छुपा चहरे नकाबों में चमन वो लूट जाते हैं
१-५
वो कश्ती हूँ बिखरती जो रही बेबस, हवाओं से
बहाना था वगरना दिल कहाँ यूँ टूट जाते हैं
१-६
सदा जो मुस्कुरा कर हैं, कभी देते सनम मुझको
इशारों ही इशारों में, मिरा दिल लूट जाते हैं
१-७
वो जब नज़दीक होते हैं, दिले-मुज़तर धड़कता है
जुबां खामोश रहती है तअश्शुक़ फूट जाते हैं
१-८
घरौंदे साहिलों पर तुम बना लो शौक से लेकिन
बने हों रेत से जो घर, वो अक्सर टूट जाते हैं
१-९ मक्ता
चलो बज़्मे-सुखन में हो गया ये मरतबा अपना
तेरे अश’आर भी अब ’हीर’ महफ़िल लूट जाते हैं
अब अगली पोस्ट सोमवार दिनांक 3 मई का लगेगी जिसमें मेरी कोशिश है कि ग़ज़ल क्या है इस विषय पर एक संक्ष्प्ति पाठ भी दिया जा सके। इस पाठ की आवश्यकता इसलिये पड़ी कि जो ग़ज़ल प्राप्त हुई है वह अपने आप में एक उदाहरण है कि ग़ज़ल का प्रारंभिक ज्ञान प्राप्त किये बिना भी ग़ज़ल कहने का साहस कुछ लोग करते हैं और ऐसे में क्या होता है।
Wednesday, April 28, 2010
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घरौंदे साहिलों पर तुम बना लो शौक से लेकिन
ReplyDeleteबने हों रेत से जो घर , वो अक्सर टूट जाते हैं
घरौंदे साहिलों पर तुम बना लो शौक से लेकिन
ReplyDeleteबने हों रेत से जो घर , वो अक्सर टूट जाते हैं
अरे वाह! अब तो इस गज़ल के तेवर ही बदल गये.
सभी उस्तादों को मेरा सलाम.
तीसरा और सातवाँ शे'र एक ही है .....
ReplyDeleteकहीं कोई छूट गया है शायद ......!!
आदरणीय कपूर साहिब,
ReplyDeleteसादर वन्दे!
आप ग़ज़ल विधा पर आलेख देने जा रहे हैँ, यह जान कर प्रसन्नता हुई।यह आप बहुत बड़ा अपक्रम करेँगे।आजकल न जाने कितने लोग अपने ब्लागस पर मनमानी ग़ज़ल लिख रहे हैँ।ये लोग उर्दू के मासूम छंद ग़ज़ल के साथ खिलवाड़ ही कर रहे हैँ।मैने तो आखर कलश पर देवी नागरानी जी की ग़ज़ल पर टिप्पणी करते हुए नरेश नदीम की पुस्तक"उर्दू कविता और छंद शास्त्र" [सारांश प्रकाशन नई दिल्ली ] पढ़ने की ताकीद भी कर डाली। लोग न जाने क्यूं बेवज़ह प्रशंसात्मक टिप्पणियां करते रहते हैँ।लगता है ब्लागिया टिप्पणीकारोँ की फ़ोज खड़ी हो गई है।खैर!
@ओम पुरोहित जी
ReplyDeleteहिन्दी ग़ज़लकारों में ग़ज़ल को लेकर बहुत से भ्रम हैं, कारण एक ही है कि इस विषय पर हिन्दी में कोई प्रामाणिक पुस्तक उपलब्ध नहीं है और विषय गहन अध्ययन का है, निरंतर अभ्यास का है।
जैसा कि इस ब्लॉग की पहली पोस्ट पर मैंनें निवेदन किया था शाइर ने अगर खुद को खारिज करना नहीं सीखा तो आगे नहीं बढ़ सकता है।
यह ब्लॉग तो तभी सफल होगा जब इसपर प्राप्त सुझावों को शाइर समझने का प्रयास करेगा और समझ न आने पर समझाईश देने वाले से जानने का प्रयास करेगा कि उसकी समझाईश के तत्व क्या हैं।
जहॉं तक अगली पोस्ट में दिये जाने वाले आधार ज्ञान का प्रश्न है वह मेरा निजि मत न होकर उसी सीमा में रहेगा जो अविवादित है।
हिन्दी में ग़ज़ल कहना सिखाने की स्थिति तो ऐसी है कि दो-चार ग़ज़ल अच्छी कह लेने पर इस विषय पर परम-ज्ञानी होने का भ्रम हो जाता है। कितने लोग काव्य शास्त्र के मूल सिद्धान्तों को समझने का प्रयास करते हैं।
देखते हैं कदम-दर-कदम चलते हुए हम कहॉं पहुँचते हैं।
Adarneey Tilak ji
ReplyDeleteGhazal ke navodit pathik is blog se bharpoor sahayata pa sakte hain aur bahut kuch seekh pane ke darwaaze khul sakte hain. Bahut hi umda prastukaran aur margdarshan ke liye aapko badhayi v shubhkamnayein
@आदरणीय देवी नागरानी जी,
ReplyDeleteआप तो स्वयं स्थापित हस्ताक्षर हैं ग़ज़ल कहने में। मैं आभारी रहूँगा यदि आप नवोदित एवं अल्पानुभव शाइरों को समय-समय पर अपनी टिप्पणियों के माध्यम से मार्गदर्शन दे सकें। आपकी व्यस्तताओं में इसके कारण कुछ कठिनाई तो हो सकती है लेकिन मेरा मानना है कि हमने जो पाया उसे पूरी तरह से हस्तॉंतरित करना भी हमारा दायित्व है।
आदरणीय तिलक जी, नागरानी जी एवं अन्य उस्तादों के सहयोग से हम जैसे नए ग़ज़लकारों का भला तो जरुर होगा.
ReplyDeleteशिकायत खुद से है की स्व-अभ्यास नहीं कर पाता.
@सुलभ सतरंगी
ReplyDeleteमैं अपने इस निवेदन के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध हूँ कि ग़ज़ल विधा में मैं केवल सतत् अभ्यास में संलग्न एक शिक्षार्थी हूँ। उस्ताद तो उसे कहा जा सकता है जो विषय को आद्योपान्त जानता हो, मैं नहीं जानता बल्कि मैं इस विषय में अल्पज्ञ हूँ।
कई बार हम केवल भावातिरेक में किसी को उस्ताद कहने लगते हैं, भावनायें बदलती रहती हैं, सत्य नहीं।
आप सबका स्नेह बना रहे, मेरे लिये यह पर्याप्त रहेगा, हॉं मैं जो भी जितना भी समझ सका हूँ उसे सहज भाव से साझा करने में मुझे न तो कभी संकोच रहा है, न रहेगा।
ग़ज़ल लेखन एक रिश्ते की तरह होता है , रिश्ते पुख्ता तभी होते हैं जब उनमें समर्पण की भावना हो...जितने हम ग़ज़ल के प्रति समर्पित होंगे उतना ही हमारा ग़ज़ल से रिश्ता पुख्ता होगा...अगर आप ग़ज़ल के नए पुराने नामचीन शायरों को देखें तो वो ग़ज़ल को इबादत की तरह समझते थे...उसी में चौबीसों घंटे डूबे रहते थे...हमारी आजकल की भागदौड़ भरी ज़िन्दगी इसमें इतना डूबने का वक्त तो नहीं देती लेकिन जितना भी वक्त हम इसे दें दिल से दें...ग़ज़ल लेखन इस तनाव भरे माहौल में स्ट्रेस ब्रस्टर का काम कर सकता है...तिलक जी के इस प्रयास की जितनी तारीफ़ की जाये काम है..." मैं अकेला ही चला जानिबे मंजिल मगर...." तो चलिए उनके इस सफ़र को कारवां बनायें..
ReplyDeleteनीरज
तिलक भाई ,
ReplyDeleteकल दो हफ्ते के लिए ' फिर बैतलवा डाल पर ' यानी न्यू योर्क पहुँच गया हूँ.ये वक्त लगातार जूते घिसने में जायेंगे पर हाज़िर हूँ और रहूँगा , चाहे जैसे बन पड़े.
ग़ज़ल मैंने भी इधर उधर कभी लिखने की कोशिश की है . अब समझा की व्याकरण हीनता ' ग़ज़ल ' के हुश्न को कितना बेरंग कर सकती है .आप के आलेखों और आयी टिप्पणियों से कितना सीख रहा हूँ कह नहीं सकता .वैसे तो मुझे ' व्यंग ' विधा ही में कुछ कहने का ,शायद कुछ शवूर है .इसी लिए तमन्ना है की आपकी क्लास से सीख ' अकबर इलाहाबादी ' की तर्जे बयानी की कुछ जूठन कभी पेश कर पाऊँ .
वैसे लिखने से ज्यादा अब ये तो होगा ही कि आपके हमकदम हो , ' ग़ज़ल ' , जिसने ज़िंदगी में मेरी , न जाने कितना शुकून और राहत दी है ,उसकी बनावट और हुश्न के और अंदाज़ के भी , डूब कर मजे लेने की तमीज़ और गुन्जायिशें तो बढ़ ही जायेंगी .
३ मई का इंतज़ार है .
कितना शुक्रिया अदा करूँ मेरे भाई !
@राज सिंह जी
ReplyDeleteअब आप हम नियमित कक्षाओं के लिये तो समय निकाल नहीं सकते, ऐसी ही स्वस्थ खुली चर्चा से ही कुछ सीख सकते हैं। अब उम्र देने की आ गयी है लेकिन देने का दायरा बढ़ सके इसके लिये कुछ सीखते भी रहना होगा। यही प्रयास है। जब इस राह पर कोई भटका हुआ नज़र आये तो जो सही राह जानते हों वे मार्ग प्रशस्त करें, सभी बढ़ते रहेंगे कदम-दर-कदम।