यह ब्लॉग जब सुरक्षित किया था, तब ऐसा अनुमान नहीं था कि ब्लॉग को ईमानदारी से कायम रखना सरल काम नहीं, फिर भी इसके रूप में अपने लिये एक काम निर्धारित कर लिया था, वह आज प्रारंभ हो रहा है।
इंटरनैट का मायाजाल बड़ा विचित्र है, एक सम्मोहक शक्ति लिये हुए, बिल्कुल भँवर की तरह जो पहले आकर्षित करती है और फिर अपनी गहराईयों में ले जाती है, ऐसी गहराईयों में जहॉं इंसान समय-संतुलन खो बैठता है। बस इसी समय-संतुलन की समस्या मुझे अब तक इस ब्लॉग को आरंभ करने से रोके हुए थी। बीच में एक अच्छा प्रस्ताव आया वीनस केसरी की ओर से 'आईये एक शेर कहें' के नाम से सीमित दायरे के एक ब्लॉग का जो इसी समय-संतुलन के भंवर-जाल में खोकर रह गया।
कदम-दर-कदम की परिकल्पना मुख्यत: इस विचार पर केन्द्रित रही कि इंटरनैट पर ग़ज़ल कहने संबंधी आधार ज्ञान बड़ी मात्रा में उपलब्ध है और सहज पहुँच के कारण ग़ज़ल कहने का शौक बढ़ने की पूरी-पूरी संभावना है लेकिन अधिकॉंश सीखने वाले; विशेषकर वे जो आधार ज्ञान रखते हैं लेकिन ग़ज़लगोई के लिये आवश्यक परिपक्वता प्राप्त करने के लिये; विधिवत् क्रमानुसार पाठ पढ़ने के स्थान पर कुछ कहकर उसपर टिप्पणियों के माध्यम से सीखने के इच्छुक हैं। सोचा कि क्यूँ न जो कहा उसे पोस्ट कर उसपर चर्चा आमंत्रित की जाये और चर्चा के माध्यम से सीखते हुए अपनी ग़ज़ल को ऐसा रूप दिया जाये कि वह पूर्ण ग़ज़ल मानी जा सके।
स्वाभाविक है कि चर्चा होगी तो ऐसी टिप्पणियॉं भी आयेंगी जो क्षणिक रूप से आहत भी करें, लेकिन आहत होने के इस चरण से निकलना इस हद तक ज़रूरी होता है कि हमें अपने कहे को खारिज करना आ जाये। जिस दिन खुद के कहे को खारिज करना आ गया, उसी दिन कहन की परिपक्वता की दिशा में शाइर कदम-दर-कदम बढ़ने लगता है और अगर खुद को खारिज करना नहीं आया तो मेरा मानना है कि कहन ठहर जाती है। कदम-दर-कदम बढ़ते हुए अगर कुछ शाइर अपनी मज़बूत पहचान बना सके तो मेरी समझ में मेरा प्रयास सफल हो जायेगा।
आरंभ में इस ब्लॉग पर केवल वही ग़ज़लें चर्चा के लिये लगाई जायेंगी जो स्वत: प्रेरणा से भेजी जायेंगी। जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे अन्य विकल्प भी खुलते जायेंगे।
ग़ज़ल भेजने के लिये कोई बंधन नहीं है, हॉं ग़ज़ल ई-मेल के माध्यम से भेजी जा सकती हैं और टिप्पणी के रूप में भी। स्वाभाविक है कि बहुत सी ग़ज़लों पर एक साथ चर्चा करना कठिन होगा इसलिये प्रत्येक सप्ताह एक ही ग़ज़ल पर चर्चा आयोजित हो सकेगी। ग़ज़ल के साथ शाइर अपना नाम प्रकाशित करना चाहते हैं या नहीं यह उनका निजि विषय रहेगा अत: इस विषय में कृपया ग़ज़ल भेजते समय ही इंगित करदें।
आप मुझसे सहमत होंगे कि टिप्पणियों में संयत भाषा का उपयोग जरूरी होता है अन्यथा कभी-कभी भावनायें आहत हो जाती हैं और उनपर कोई मरहम काम नहीं करती। स्वाभाविक है कि ऐसी टिप्पणियों का कोई महत्व न होगा जिनमें अशआर के तकनीकि व कहन पक्ष पर कुछ न कहा गया हो।
पहली ग़ज़ल हरकीरत 'हीर' जी से प्राप्त हुई है इसे ग़ज़ल के रूप में स्वीकार करने में क्या समस्याऍं हैं इस पर चर्चा के लिये प्रस्तुत है। कृपया टिप्पणी देते समय शेर के पहले लिखा क्रमांक अवश्य दे दें जो ग़ज़ल क्रमांक-शेर क्रमांक है:
1-1
कभी वो मुस्कुराते हैं ,कभी वो रूठ जाते हैं
बड़े ज़ालिम हैं दिल वाले तसव्वुर लूट जाते हैं
1-2
नज़र जो मुन्तजिर होती कभी हम लौट ही आते
परिंदों के घरौंदों से , क्यूँ घर टूट जाते हैं...?
1-3
लगाये जो शजर हमने वो अक्सर सूख जाते हैं
जहाँ हमने मुहब्बत की शहर वो छूट जाते हैं
1-4
जफ़ा देखी वफ़ा देखी जहाँ की हर अदा देखी
छुपा चहरे नकाबों में , हया वो लूट जाते हैं
1-5
वो कश्ती हूँ बिखरती जो रही बेबस हवाओं से
बहाना था वगरना दिल कहाँ यूँ टूट जाते हैं
1-6
कभी जो मुस्कुरा के वो सदायें मुझको देते हैं
इशारों ही इशारों में , मेरा दिल लूट जाते हैं
1-7
बड़े मदहोश लम्हे थे सनम जब सामने आये
जुबां खामोश रहती है तअश्शुक़ फूट जाते हैं
1-8
घरौंदे साहिलों पर तुम बना लो शौक से लेकिन
बने हों रेत से जो घर , वो अक्सर टूट जाते हैं
1-9
कभी मत्ले पे होती वाह कभी मक्ता लुभाता है
अश'आर तेरे यूँ 'हीर' महफ़िल लूट जाते हैं ।
Thursday, April 22, 2010
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कुछ संशोधन प्रस्तावित हैं, उचित लगें तो देख लें। एक कमी फिर भी रह जाती है एक ही काफिये को कई बार इस्तेमाल करने की। 1-7 में पूरी तसल्ली अभी भी नहीं है।
ReplyDelete1-1
कभी तो मुस्कुराते हैं, कभी वो रूठ जाते हैं
इन्हीं कातिल अदाओं से तसव्वुर लूट जाते हैं।
1-2
नज़र इक मुन्तजिर होती तो हम भी लौट आते पर
परिंदों के जो घर छूटे तो रिश्ते टूट जाते हैं।
1-3
लगाये जब शजर हमने बगीचे सूखते देखे
अगर हमने मुहब्बत की शहर ही छूट जाते हैं।
1-4
जफ़ा देखी वफ़ा देखी जहाँ की हर अदा देखी
नकाबों में छुपे चहरे, दिलों को लूट जाते हैं।
1-5
समन्दर के तलातुम में भला कश्ती की क्या मर्जी
ज़माना सामने होने पे दो दिल टूट जाते हैं।
1-6
अदा से मुस्कुरा के वो सदायें मुझको देते हैं
इशारों ही इशारों में, मेरा दिल लूट जाते हैं।
1-7
तसव्वुर में सनम आयें अगर ख़ामोश लम्हों में
ज़ुबां कहती नहीं कुछ, अश्क लेकिन फूट जाते हैं।
1-8
तुम्हारा शौक है साहिल पे अपना घर बसालो पर
बने हों रेत से जो घर, लहर से टूट जाते हैं।
1-9
तेरे अशआर अच्छे हैं मगर ऐ 'हीर' देखा है
वो शाइर और होते हैं जो महफिल लूट जाते हैं।
bhai sahib mai to keval mail dekhane aayee thee aate hee is blog ke baare me jaan kar bahut khushee huyee apako pataa hai ki abhee bhee vyast hoon magar fir bhee time nikalana hee hoga abhee charcha me bhag lene ke kabil khud ko nahin samajhatee magar fir bhee dobaaraa blog par aatee hoon kya mai bhee apane gazal bhej sakatee hoon? bahut bahut shubhakamanayen kal fir ati hoon
ReplyDelete@निर्मला कपिला जी
ReplyDeleteमेरा विश्वास है कि ग़ज़ल कहना सतत् अभ्यास का विषय है। इंटरनैट के कारण एक ऐसी स्थिति बनी है कि दुनिया के किसी भी कोने में बैठकर चर्चा में भाग लिया जा सकता है।
ग़ज़लगोई में इस्सलाह का प्रचलन हमेशा रहा है। पहले यह सीमित दायरे में होता था अब इंटरनैट आ जाने से खुली सलाह ली जा सकती है, स्वाभाविक है कि इस माध्यम से इस्सलाह का दायरा भी बढ़ेगा और गति भी।
कोई भी अपनी ग़ज़ल यहॉं पोस्ट कर उसपर चर्चा आमंत्रित कर सकता है, आप भी।
तिलक जी ,
ReplyDeleteक्या हम पहले की तरह दिए मतले पर शे'र कहने की प्रक्रिया को नहीं शुरू कर सकते .....??
मेरे ख्याल से किसी एक के ग़ज़ल भेजने से कोई चर्चा के लिए नहीं आएगा ....सभी अपने शे'र की वाह वाही या दिए मतले पे एक सम्पूर्ण ग़ज़ल के लिए तो आ जायेगे ....वर्ना सारी जिम्मेदारियां आपको ही निभानी पड़ेगी ....!!
मतले में ...१-१
ReplyDelete"बड़े ज़ालिम हैं दिल वाले " क्या ये बहर में नहीं है ....?
"कातिल अदाएं " अधिकतर स्त्री के लिए इस्तेमाल होता है पुरुष के लिए नहीं ....
और इक बात ...मुझे बताइयेगा जो आपने शे'रों में फेर बदल की है क्या ये सभी बहर से बाहर थे या कहन ठीक नहीं था ...अगर आप बिलकुल ही उलट फेर कर देंगे तो मैं जान ही नहीं पाऊँगी कि मैंने कहाँ गलती की थी ...यहाँ तो मैं सारी की सारी ही गलत हूँ ...इस से तो मेरी सीखने कि जिज्ञासा खत्म हो जाएगी .....!!
word verification bhi hta lein ....
तिलक जी सबसे पहले तो आपको साधुवाद देना चाहता हूँ आप ने वीनस के अधूरे काम को जो आगे बढ़ने का फैसला लिया है वो हम जैसे ग़ज़ल सीखने वालों के लिए किसी वरदान से कम नहीं. आप ने सच कहा जब तक हम अपने कहे शेर के मोह को त्यागेगें नहीं तब तक कुछ नया नहीं सीख सकते...इस्लाह वो ही ले सकता है जो अपने कहे को मिटाना सीख ले...इन्टरनेट के फायदे नुक्सान दोनों हैं यहाँ हम सीख भी सकते हैं और दिग भ्रमित भी हो सकते हैं...हम अक्सर टिप्पणियों के नक्कार खाने में सच्चाई की तूती को नहीं सुन पाते...खैर...आगाज़ बहुत नेक इरादे से किया गया है उम्मीद करता हूँ के ये ब्लॉग अपने निर्धारित अंजाम तक पहुंचे.
ReplyDeleteअब बात ग़ज़ल की:-अभी हर एक शेर पर कुछ नहीं कहूँगा क्यूँ की मैंने इस ग़ज़ल को अभी सरसरी तौर पर ही पढ़ा है...इसमें काफियों का दोहराव है जो दोष नहीं है लेकिन ग़ज़ल के स्तर को कम करता है...यूँ बहुत से नामी गरामी शायरों ने अपनी मशहूर ग़ज़लों में काफियों का दोहराव किया है लेकिन जरूरी नहीं के जो गलती नामी लोग कभी कभार कर जाते हैं वो हम भी करें. हम अभी सीखने की प्रक्रिया में हैं इसलिए हमें ग़ज़ल लेखन के मूल सिधान्तों से समझौता नहीं करना चाहिए...
'लूट' काफिया ग़ज़ल के लगभग आधे शेरों में रीपीट हुआ है जो ग़ज़ल के सौन्दर्य को कम करता है...इसी तरह टूट काफिया तीन शेरों में रीपीट किया गया है...शेष के दो शेरों में फूट और छूट काफिया आया है...याने नौ शेरों वाली ग़ज़ल में कुल जमा चार ही काफिये इस्तेमाल हुए हैं...जो मेरी समझ में सही नहीं...हम चाहे पांच शेरों वाली ग़ज़ल ही कहें लेकिन काफिये अलग अलग रखें तो उसका मज़ा और ही है...
बाकि बाद में...
तिलक जी एक अनुरोध और है आप टिप्पणियों में मोडरेशन वाला आप्शन डाल दो ताकि जो टिपण्णी आपको आपति जनक लगे उसे प्रकाशित न कर टिपण्णी करता से आप सीधे बात कर सकें और टिपण्णी प्रकाशित ना करने की वजह भी बता सकें...दूसरा फायदा ये भी होगा जो भीं सदस्य इसमें अपनी ग़ज़ल भेजना चाहेगा वो आप के पास सुरक्षित रहेगी जिसे आप अपनी सुविधा से बहस के लिए पोस्ट कर सकेंगे...वीनस ने ये सुविधा इस्तेमाल नहीं की थी इस वजह से अनावश्यक टिप्पणियों के जमावड़े से वहां पोस्ट की गयी मूल ग़ज़ल कहीं खो ही गयी थी...
ReplyDeleteबाकि अंतिम निर्णय जो आप लेंगे वो हमें मान्य होगा...हम प्रतिरोध नहीं करेंगे...ये पक्का है...
नीरज
@ हरकीरत जी,
ReplyDeleteमुझे जितनी जानकारी है मैं उतना कह रहा हूँ, विशेषज्ञों की राय आमंत्रित है
"बड़े ज़ालिम हैं दिल वाले " बहर में है.
तिलक जी ने कहन में सुधार किया है.
.
नीरज जी की बात को आगे बढ़ाना चाहूँगा कि काफिये का दोहराव जितना हो सके उतना कम किया जाये तो उचित रहेगा, क्योंकि एक नए काफिये के साथ एक नया ख्याल उम्दा तरीके से निखरेगा.
@नीरज भाई साहब
ReplyDeleteआप की बात से सिद्धान्तत: सहमत हूँ, माडरेशन ब्लॉग ओनर का समय लेता है, लेकिन आपके अनुभव का सम्मान करते हुए अभी इसे चालू कर देता हूँ, फिर समयानुसार 'जब-जब दरिया आयेंगे,हम भी रस्ता ढूँढेंगे'।
मैं चाहूँगा कि माडरेशन के लिये कुछ स्वयंसेवक आगे आयें तो अच्छा रहेगा।
bahut achcha kaam tilak ji... haardik badhayee... bahut khoob...
ReplyDelete@हरकीरत जी
ReplyDeleteअभी तो शुरुआत है। जब इस ग़ज़ल पर चर्चा समाप्त की जायेगी तो उसमें आपको ग़ज़ल के हर पहलू पर विवरण मिलेगा, वही पाठ रहेगा।
आपके सभी शेर बह्र से बाहर हों ऐसा नहीं है। ग़ज़ल का तकनीकि पक्ष एक बात है और कहन दूसरा। शेर कहन से पहचाने और याद किये जाते हैं।
जैसे आपके पहले शेर को ही लें
कभी वो मुस्कुराते हैं, कभी वो रूठ जाते हैं
बड़े ज़ालिम हैं दिल वाले तसव्वुर लूट जाते हैं।
इसे पढ़ने में बह्र का कोई दोष नहीं दिख रहा लेकिन दूसरी पंक्ति (मिस्रा-ए-सानी) को देखें इसमें तीन बातें हैं जिनसे यह आशय निकलता है कि जो तसव्वुर लूट जाते हैं वो दिलवाले हैं और ज़ालिम हैं। ग़ज़ल की भाषा में दिलवाले ज़ालिम नहीं होते, अगर शब्द को छोड़कर भाव पक्ष पर भी जाया जाये तो इसे कहन का अंदाज़ मानते हुए यह देखें कि स्वतंत्र रूप से यह पंक्ति एक बात कह रही है जबकि एक अच्छे शेर की दूसरी पंक्ति पहली पंक्ति की बात को आगे बढ़ाती है।
अब आप सुझाव को देखें दूसरी पंक्ति अपने आप में स्वतंत्र नहीं है और पहली पंक्ति में कही बात को आगे बढ़ा रही है और इसमें एक ग़ज़लिया नज़ाकत भी है वो कभी मुस्कुराने और कभी रूठ जाने की कातिल अदाओं से तसव्वुर लूट जाते हैं।
कभी तो मुस्कुराते हैं, कभी वो रूठ जाते हैं
इन्हीं कातिल अदाओं से तसव्वुर लूट जाते हैं।
अंकित ने सही कहा है कि इस शेर में केवल कहन में सुधार प्रस्तावित किया है।
BHAI TILAK RAJ JEE ,ACHCHHE KAAM KE LIYE
ReplyDeleteAAPKO MEREE BADHAAEE AUR SHUB KAMNA.ASHA
KARTA HOON KI AAP APNE IS KAAM KAA EK LAKSHYA
KEE BHANTI ANUSARAN KARENGE.
EK QAAFIYA KO KISEE GAZAL KE SAAT SHERON MEIN
ReplyDeleteDO-TEEN BAAR ISTEMAAL KARNA KOEE DOSH NAHIN
HAI.YE TO GAZALKAAR KEE VIDVATAA HAI KI USNE
EK QAAFIYA KO SHERON KE ALAG-ALAG BAYAAN MEIN
VISTAAR DIYAA HAI.YUN BHEE JAB QAAFIA
( JAESE - LOOT) TANG HOTAA HAI TO GAZALKAAR
KO EK QAAFIA BAAR -BAR ISTEMAAL KARNAA PADTA
HAI.QAAFIA KAA DOHRAAV N TO KOEE DOSH HAI
AUR N HEE KOEE GALTEE.NAYE -PURAANE SABHEE
GAZALKAAR QAAFIYA KAA BAAR-BAAR ISTEMAAL KARTE HAIN EK GAZAL MEIN.
कपूर साहब, वीनस जी के इस ब्लॉग के बारे में मैने सुना था, लेकिन तब केवल आमंत्रित जनों के लिये इसके विकल्प खुले थे लिहाजा मेरी पहुंच वहां नहीं हो सकी. आपने इसे पुन: आगे बढाया, साधुवाद. एक बात और, मैं न तो गज़ल कहती हूं, और न ही इसके तकनीकी पक्ष से पूरी तरह परिचित हूं, लेकिन गज़ल पढने की शौकीन हूं, उसे समझती भी हूं, और उस पर होने वाली चर्चा में शामिल होना चाहती हूं. अब यदि आप मुझे एक उम्दा पाठक के तौर पर बर्दाश्त कर सकें तो अनुगृहीत रहूंगी.
ReplyDeleteआदरणीय प्राण साहब ने जो कहा है वह स्वत: स्पष्ट है। ग़ज़ल के तकनीकि पक्ष पर उनका बयान पत्थर की लकीर माना जाता है। उनके इस बयान के साथ ही सीखने वालों के लिये एक बात स्पष्ट हो गयी है कि काफिया का दोहराव कोई दोष नहीं है। तकनीकि पक्ष पर यह पहला पाठ है जो इस चर्चा में सामने आया है।
ReplyDelete@आदरणीय गुरुवर प्राण शर्मा जी:
आपने समय निकालकर जो मार्गदर्शन दिया उसके लिये आभारी हूँ।
प्राण साहब ग़ज़ल के ज्ञाता हैं हम सब के गुरु हैं,उनसे हमेशा कुछ नया सीखने को ही मिलता है, उनकी काफिये दोहराने वाली बात सही है, मैंने भी ये ही कहा है लेकिन मेरा ख्याल है के अगर काफिये को बार बार दोहराना ही है तो उसे रदीफ़ ही क्यूँ न बना दिया जाए,? फिर शायर उसे अपने हर शेर में इस्तेमाल करने को स्वतंत्र है...जैसे "लूट जाते हैं" को इस ग़ज़ल का रदीफ़ बनाया जा सकता था तब उस हालात में काफिया कुछ और ही चुनना होता...
ReplyDeleteग़ज़ल प्रेषित करने के साथ साथ अगर आप मतले की तकती भी कर के पेश करें तो बहर समझने में बहुत आसानी हो जाएगी.
नीरज
मतला अगर यूँ कहें तो कैसा रहेगा...
ReplyDeleteकभी वो मुस्कुराते हैं, कभी वो रूठ जाते हैं
बड़ी मासूमियत से दिल हमारा लूट जाते हैं
नीरज
1-1 में नीरज भाई का सुझाव दिलकश है।
ReplyDeleteकभी वो मुस्कुराते हैं, कभी वो रूठ जाते हैं
बड़ी मासूमियत से दिल हमारा लूट जाते हैं।
...एक से बढकर एक शेर ... लाजवाब गजल!!!
ReplyDelete@वन्दना जी
ReplyDeleteऐसे पाठक और श्रोता जो ग़ज़ल की समझ रखते हों निश्चित ही अपना महत्व रखते हैं इस व्यवस्था में।
जब जब गज़ल लिखने के लिए एक कदम आगे बढ़ाया है लोगों ने इतनी कमियाँ गिनाईं हैं कि दस कदम पीछे लौट आया हूँ..
ReplyDeleteहर इक शेर पर विद्वानों की माथापच्ची ध्यान से पढ़ूँगा. अभी तो बहुत मज़ा आ रहा है हरकीरत जी के मतले की जोड़-तोड़ देखकर.
1-2
ReplyDeleteनज़र जो मुन्तजिर होती कभी हम लौट ही आते
परिंदों के घरौंदों से , क्यूँ घर टूट जाते हैं...?
@हरकीरत जी, तिलक राज जी, इस शेर पर भी नज़र डालने की ज़रूरत है
इसमें पहला मिसरा बहुत साफ़ है-
नज़र जो मुन्तजिर होती कभी हम लौट ही आते..
इसमें शायरी बिल्कुल साफ़ झलक रही है.
अलबत्ता सानी में-
परिंदों के घरौंदों से क्यूँ घर टूट जाते हैं..
इसमें परिंदों के घरौंदों से घर टूटने वाली बात कुछ अजीब सी लग रही है.
इसे यूं कहें तो कैसा रहेगा-
घरौंदे ये उम्मीदों के मगर सब टूट जाते हैं
और ये शेर यूं रखा जाये-
नज़र जो मुन्तजिर होती कभी हम लौट ही आते..
घरौंदे ये उम्मीदों के मगर सब टूट जाते हैं
शाहीद जी शे'र बहुत ही अच्छा बन पड़ा है ...बहुत बहुत शुक्रिया ...!!
ReplyDeleteआपके सभी शे'र मुझे पसंद आये है .....
कुछ मतले को भी दुरुस्त करें .....!!
तिलक भाई ,
ReplyDeleteकितना शुक्रिया अदा करूँ ? आज बारह दिन बाद नेट पर लौटा तो इस बेमिसाल ब्लॉग की सौगात मिली .सब पूरा पढ़ गया टिप्पणी चर्चा सहित .फ़िलहाल तो इतना ही कि ध्यान लगा क्लास में बैठा हूँ .सीख रहा हूँ ' कदम - दर -कदम !
आदरणीय तिलक राज जी
ReplyDeleteआपका ये नायाब क़दम अदब की दुनिया में
इक मुसबत इंक़िलाब साबित होगा ,,,
इस बात पर हम सब को पूरा यक़ीन है
आप जैसे आलिम-फ़ाज़िल अदीब का
सभी ग़ज़ल सीखने वालों पर ये एहसान रहेगा
...
ग़ज़ल पर तब्सिरा तो तमाम अदब-शनास लोग
कर ही चुके हैं...लगता नहीं क कोई गुंजाईश
बाक़ी है ...
दुआएं और नेक-ख्वाहिशात के साथ
'मुफ़लिस'
सबसे पहले यह बता देना जरूरी है कि मैं गजल का एक अदना सा विद्यार्थी हूँ और सारी उम्र यही रहूँगा.
ReplyDeleteकिसी की गजल देखना, उसकी कमियां बताना, यह एक ऐसा मामला होता है जिस में अक्सर रिश्ते खराब होते हैं, कलह पैदा होती है, यह मेरा जाती तजरबा है.
तिलक जी, मुझे भी उस्ताद नाम की शय हासिल नहीं हुई और किताबों, दोस्तों और जमाने ने ही मेरी रहनुमाई की है, इस लिए गजल पर बातचीत में हो सकता है मैं कच्चा साबित ठहरूं.
हरकीरत जी की गजल पर कुछ कहने की जसारत कर रहा हूँ-------------
सबसे पहले यह साफ़ कर देना चाहता हूँ कि कविता और गद्य में एक अंतर है, गद्य में आप भाषा का कोई भी रूप प्रयोग कर सकते हैं. कविता में भाषा अपने शुद्ध रूप में ही अपनानी होती है. इसी लिए यह कहावत चलन में आई कि किसी देश की मूल भाषा देखनी हो तो कविता पढो.
'लूट जाते हैं', हरकीरत जी ने इस टुकड़े का प्रयोग किया है. व्याकरण एवं भाषा के स्तर पर यह प्रयोग जायज़ नहीं है. यह मैं नहीं कह रहा हूँ, भाषा विज्ञानं यही बताता है. लूट के बाद 'ले'कहना आवश्यक है. अगर किसी को मेरी इस बात पर एतराज़ है तो मैं क्षमा चाहूँगा लेकिन मेरी क्षमा से भाषा नहीं बदल जाएगी और जिन लोगों को गजलें को सीखने के लिए प्रेरित करने उद्देश्य से यह ब्लॉग कार्यरत है, उसके उद्देश्य समाप्त हो जाएँगे.
शाहिद भाई ने जिस शेर को दुरुस्त किया उस पर कोई सवाल नहीं. "वो किश्ती हूँ ......." में 'बेबस हवाओं' की जगह ' ज़ालिम हवाओं' किया जाना चाहिए.
लगाये जो शजर हमने वो अक्सर सूख जाते हैं
जहाँ हमने मुहब्बत की शहर वो छूट जाते हैं
इस शेर के ऊपर वाले मिसरे में भी रदीफ़ मौजूद है. यह दोष है. "हमेशा सूख जाते हैं, शजर हम ने लगाए जब. यह मिसरा यूं ठीक हो सकता है. दूसरे मिसरे में शहर की जगह 'नगर' कर लिया जाए क्योंकि सही शब्द 'शह्र' है.
इसी तरह, 'कभी जो मुस्कुरा के......' की जगह 'सदाएं मुझको देते हैं कभी जो मुस्कुरा के वो' कर लें तो बात बन जाएगी.
'घरौंदे रेत......बहुत प्यारा शेर है. इस के लिए हरकीरत जी को जितनी भी तारीफें मिलें, कम हैं.
मक्ता फिर से कहा जाना चाहिए. दोनों मिसरों में बहर टूटी है. 'वाह' की जगह 'वह' और दूसरे मिसरे में 'अशआर' ने मामला ख़राब कर दिया है.
कल से प्रयासरत हूँ लेकिन कुछ काम की व्यस्तता और रही-सही कसर बिजली!
मैं केवल यही चाहता हूँ कि गजलें दुरुस्त तरीके से लिखी जाएँ. मैं ने भी बहुत मेहनत की है, यही मेहनत मैं गजल के हर विद्यार्थी से चाहता हूँ.
सर्वत साहब ने जो कहा आपके सामने है। मैं उनकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि ग़ज़ल कहना सीखना एक सतत् प्रकिया है। कोई शाईर उस्ताद है या नहीं यह एक राय होती है उन लोगों की जो उस शाईर को पढ़ते-सुनते हैं। शाइर की बेहतरी इसी में होती है कि वह खुद को कभी उस्ताद न माने।
ReplyDeleteसर्वत साहब ने बारीक बात उठाई है। मैं उनसे पूरी तरह सहमत हूँ कि शुद्ध व्याकरणीय (और वैधानिक दृष्टि से भी) इसमें कोई विवाद नहीं कि लूट तभी मुकम्मल है जब ले जाई जाये, इसीलिये लूट के बाद 'ले' कहना आवश्यक है. अब इस पर मतभिन्नता हो सकती है कि अगर बह्र में गुँजाईश न बच रही हो तो इस बारे में शाईर कोई छूट ले सकता है कि नहीं। मेरा अनुभव है कि शाईर अक्सर ऐसी छूट लेते हैं जबकि भाषा विज्ञान में ये अनुमत्य नहीं है।
सर्वत साहब ने 'बेबस हवाओं' पर जो प्रश्न उठाया है वह भी भाषा विज्ञान की दृष्टि से पूरी तरह सही है। सोचने की बात है कि अगर हवायें खुद ही बेबस हैं तो ? और अगर हरकीरत जी ने कश्ती को बेबस कहना चाहा है तो यह शब्द कश्ती से इतना दूर निकल गया है कि? अगर मिस्रा ऐसा ही रखना है तो ज़ालिम तो करना ही होगा।
लगाये जो शजर हमने वो अक्सर सूख जाते हैं
जहाँ हमने मुहब्बत की शहर वो छूट जाते हैं
में सर्वत साहब की यह बात समझने और गॉंठ बॉंधने लायक है कि मिस्रा-ए-उला यानि पहली पंक्ति में रदीफ़ आना दोष माना जाता है।
जहां तक दूसरे मिसरे में शहर को 'नगर' करने की बात है उर्दू के नज़रिये से सर्वत साहब सही हैं लेकिन हिन्दी के प्रामाणिक शब्दकोषों में शह्र को शहर के रूप में ही अपनाया गया है और स्वर्गीय दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल के मिस्रे 'कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये' के साथ हिन्दी भाषाविदों के बीच इस शब्द पर विवाद समाप्त हो चुका है। एक बात फिर भी सोचने की है कि शहर कहने की जि़द क्यूँ,क्यों न नगर कह कर विवादरहित शब्द प्रयोग किया जाये।
'सदाएं मुझको देते हैं कभी जो मुस्कुरा के वो' बेहतरीन सुझाव है लेकिन इसपर मूल शेर, सर्वत साहब के सुझाव और मेरे सुझाव तीनों में एक बारीक समस्या है। सदायें मुस्कुरा के दे रहे हैं या नहीं ये कैसे तय हो रहा है? बात बारीक है इसलिये इसपर नज़रे सानी की ज़रूरत है।
मक्ता वास्तव में बह्र से बहुत बाहर है।
सर्वत साहब का बहुत-बहुत शुक्रिया कि उन्होंने ग़ज़ल की बारीकियों पर अपनी बात खुलकर रखी। इसी तरह हम एक दूसरे से सीख सकते हैं।
तिलक जी आपने जो ये ब्लॉग शुरू किया है उसके लिए मैं आभारी हूँ
ReplyDeleteइस तरह की स्वस्थ चर्चा हम सभी की ज्ञान वृद्धि करने में सहायक होगी
सर्वत जी नीरज जी प्राण शर्मा जी और आपके द्वारा लिखी गयी सभी बातें मैंने पढ़ी और बहुत कुछ जाना .....
जैसे .........एक ही काफिये का इस्तेमाल बार बार किया जा सकता है ..........हाँ ये बात से मैं भी सहमत हूँ कि ग़ज़ल की खूबसूरती ख़तम हो जाती है अगर एक ही शब्द बार बार इस्तेमाल किया जाए .....
बहर को बह्र कहना और शहर को शह्र तो मुझे पता था मगर आज दुबारा उस पर हुई चर्चा पढना अच्चा लगा
और लूट के साथ ले ज़रूरी होने की जानकारी से भाषा ज्ञान बढ़ा
मैं इसको आगे भी पढ़ती रहूंगी आशा है बहुत कुछ सीखने मिलेगा
हरकीरत हीर से मेल पर प्राप्त टिप्पणी:
ReplyDeleteआदरणीय सर्वत जी ,
बहुत बहुत शुक्रिया आपने अपने नज़रीयात पेश किये ....ये कक्षा तो है ही कमियाँ बताने के लिए नाराज़गी कैसी .....!!
कुछेक शे'रों को आपने जो नया रूप दिया काबिले तारीफ है ....शुक्रिया उसके लिए .....!!
@ रही बात लूट जाते हैं'के बाद 'ले' की ...आपके कहने का मतलब लूट ले जाते हैं होना चाहिए ....व्याकरण की दृष्टि से देखा जाये तो आपने सही कही। मेरी सोच यह है कि पद्य में बंधन होते हैं जबकि गद्य में नहीं अत: पद्य कहने में आशय स्पष्ट हो रहा हो व्याकरण की छूट कुछ हद तक तो होनी ही चाहिये।
@ दूसरी आपने बात कही ...'बेबस' की
वो कश्ती हूँ बिखरती जो रही बेबस हवाओं से...
में मेरा आशय बेबस कश्ती से ही था जो बेबस के बाद अल्प विराम न होने के कारण भ्रम पैदा कर रहा है।
@ शजर हमने लगाये जब वो अक्सर सूख जाते हैं ..
वाह...वाह...बहुत खूब .....शुक्रिया ...!!
@ दूसरी पंक्ति में शहर की जगह नगर से वो सौन्दर्य नहीं आता ...जब शहर शब्द शब्दकोश में है तो इसके उपयोग की अनुमति होनी चाहिये ...!!
@ सदाएं मुझको देते हैं कभी वो मुस्कुरा के जो
इशारों ही इशारों में , मेरा दिल लूट जाते हैं
वाह ...वाह .....क्या दुरुस्त किया है ....ग़ज़ल कहना तो कोई आपसे सीखे .....!!
अब रह गया मतला और मक्ता ....मुझे मतला भी पसंद नहीं .....और आपने कहा मक्ते में भी दोष है ...तो बाकि मित्रों से भी अनुरोध है वे भी अपना मार्गदर्शन दें.....!!
तिलक जी गुज़ारिश है के ग़ज़ल के जो शेर पसंद किये गए हैं उन्हें अलग कर दिया जाए और जो कमज़ोर शेर हैं या जो काम मांगते हैं उन्हें सामने लाया जाए...अब इतनी टिप्पणियां हो गयीं हैं की पता ही नहीं चल रहा किस शेर को छोड़ना है और किस पर काम करना है...दूसरी बात ये तय कौन करेगा की कौनसा शेर अच्छा है और कौनसा काम मांगता है...मेरे ख्याल से ये ग़ज़ल हरकीरत जी की है तो उन्हें ही कहा जाये के वो अच्छे कामयाब शेरों को अलग कर उन शेरों को सामने लायें जिनसे वो संतुष्ट नहीं...वर्ना ये बहस हमें किसी मुकाम पर नहीं पहुंचाएगी..जहाँ तक मैं समझा हूँ हरकीरत जी मतले मकते और शेर 1-7 से संतुष्ट नहीं हैं....
ReplyDeleteनीरज
@ नीरज जी ने 1-7 शेर की तरफ़ इशारा किया है-
ReplyDeleteऐसे शायद कुछ साफ़ हो जाये-
सनम आते हैं, लाते हैं ये मदहोशी का आलम भी
जुबां खामोश रहती है तअश्शुक़ फूट जाते हैं
मदहोशी में तअश्शुक फूटने की बात, खूबसूरत सुझाव दिया है शाहिद भाई ने।
ReplyDelete"कदम-दर-कदम"
ReplyDeleteआगाज़ तो अच्छा था...अंजाम खुदा जाने...
AAP SAB KE SUJHAAV PADH KAR BAHUT KUCH SEEKHANE KO MIL ERAHAA HAI AUR KHUD KO BHAAGYASHALI MAAN RAHI HOON APANE KO IS BLOG PAR PAA KAR DHANYAVAAD TILAK BHAI SAHIB KAA JINHON NE IS NEK KAAM KAA BEEDA UTHHAAYAA HAI\ SHUBHAKAAMANAAYEN AUR DHANYAVAAD EK GUJARISH BHEE KAROONGEE KI KI GAZAL PAR KISEE ACHHEE KITAAB KE BAARE ME BHEE MERE JAISE ANAJAN PATHHAKON KO BATAYAA JAAYE TO SUVIDHA HOGI
ReplyDeleteग़ज़ल लेखन विषय पर किताब की तलाश तो मुझे भी हमेशा रही है लेकिन अब तक मिल नहीं पाई। ज्ञात हुआ है कि प्राण शर्मा जी की एक पुस्तक शीघ्र ही आने वाली है।
ReplyDeleteतब तक
http://www.abhivyakti-hindi.org/rachanaprasang/urdughazal_hindighazal.htm
http://www.abhivyakti-hindi.org/rachanaprasang/2005/ghazal/ghazal01.htm
तथा पंकज सुबीर के ब्लॉग, श्याम सखा 'श्याम' के ब्लॉग, सतपाल भाटिया के ब्लॉग आदि का अध्ययन किया जा सकता है।
अगली पोस्ट के साथ कुछ आधार जानकारी भी पोस्ट हो रही है जो मुझे लगता है पर्याप्त रहेगी शुरुआत के लिये।