कुछ उनके लिये जो ग़ज़ल कहने की विधा में नये हैं:
प्रस्तुत ग़ज़ल पर चर्चा के पहले इस विधा को न जानने वालों के लिये जरूरी होगा कि आवश्यक बातें समझ लें जो इस प्रकार हैं:
कोई काव्य ग़ज़ल कहा जा सके इसके लिये जरूरी है कि वह ग़ज़ल के आधार नियमों का पालन करे। ग़ज़ल के आधार नियम हैं बह्र, रदीफ़, काफि़या। ग़ज़ल बिना रदीफ़ के भी कही जा सकती है, ऐसी स्थिति में बह्र और काफिया का पालन न्यूनतम आवश्यकता है। इसके बाद ग़ज़ल सराही जा सके इसके लिये आवश्यक होता है कि हम जो कहना चाह रहे हैं वह स्पष्ट रूप से समझ मे आ रहा हो।
ग़ज़ल कहने की दुनिया में कदम रखने वाले के लिये उचित रहता है कि वह ग़ज़ल सुनने और पढ़ने में अपनी रुचि पैदा करे। इससे आरंभिक शेर कहने में मदद मिलेगी। प्राथमिक प्रयासों में उचित रहेगा यदि किसी ऐसी प्रचलित सुनी हुई ग़ज़ल को आधार बनायें जिसे आप गुनगुना सकें। इसी गुनगुनाने को आधार बना कर छिटपुट शेर कहने से ठीक-ठाक शुरूआत की जा सकती है।
शुरू में सरल बह्र पर ही काम करना ठीक रहता है। शेर कहने से पहले जरूरी हो जाता है कि जो शेर हम कहने जा रहे हैं उसके विचार को स्पष्ट कर लें। अच्छा काव्य कहने के लिये अच्छा शब्द सामर्थ्य आवश्यक है लेकिन अनावश्यक रूप से जटिल शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिये। सटीक शब्दों का अपना ही महत्व होता है लेकिन मात्र अपना भाषा-ज्ञान जताने के लिये सामान्य प्रचलन के शब्दों से हटना ठीक नहीं होता है।
उचित होगा कि नये शाइर ग़ज़ल के विषय में आधार जानकारी भी अवश्य प्राप्त करलें। जिसमें बह्र की आधार जानकारी भी सम्मिलित है। कुछ जानकारी
अथ-कथित पर आज ही पोस्ट की है।
ग़ज़ल कहने के चरण:
- अगर किसी प्रचलित ग़ज़ल को आधार बनाया गया है तो स्पष्ट है कि बह्र, रदीफ़ और काफि़या तो निश्चित हो ही गया होगा अन्यथा अब रदीफ़ व काफिया निर्धारित करलें जिनका पालन आप इस ग़ज़ल में करनेवाले हैं। बह्र भी निर्धारित कर लें तो ठीक रहेगा।
- इसके बाद पहली बात यह जरूरी हो जाती है कि एक शेर का कच्चा रूप लिख लिया जाये, बेहतर होगा कि लिखते समय गुनगुनायें और आवश्यकतानुसार शब्दों को ऐसे व्यवस्थित करें कि गुनगुनाने में सरल प्रवाह हो। अगर सबसे पहले ग़ज़ल के मत्ले का शेर लिख सकें तो और बेहतर।
- पहला शेर (यहॉं यह जरूरी नहीं कि यह मत्ले का शेर हो) लिखने के बाद पहला काम होता है शेर से काफिया और रदीफ़ अलग करना, यह काम अप्रत्यक्ष रूप से तो शाइर कर ही चुका होता है लेकिन इसे प्रत्यक्ष रूप से अलग करना जरूरी है।
- जब रदीफ़ व काफिया अलग करलें तो उसका मात्रिक क्रम देखें। यह मात्रिक क्रम निर्धारित करेगा कि जो बह्र चुनी जानी है उसके अंत में कौनसे रुक्न रहेंगे। एक बार यह पहचान लेने से संभावित बह्रों का दायरा सीमित हो जाता है और आपको बह्रों के बह्र में डूबना नहीं पड़ता (उर्दू में बह्र का एक अर्थ समंदर भी हैं)।
- संभावित बह्रों में से वह बह्र ग़ज़ल कहने के लिये चुनें जो मात्रिक क्रम और कुल मात्रिक भार में आपके कहे शेर की पंक्तियों से सबसे ज्यादह मेल खाती हो। एक से ज्यादह बह्र में अनिर्णय की स्थिति होने पर प्राथमिकता ऐसी बह्र को दें जिसके अरकान आप सहजता से गुनगुना पा रहे हों या प्रवाह में पढ़ पा रहे हों।
- अब ग़ज़ल का काफिया देखकर उसके अनुरूप शब्दों का चयन कर कहीं हाशिये में लिख लें।
- अब आपके पास बह्र भी है, काफिया भी है और रदीफ़ भी; इसके आधार पर प्रयास कीजिये अशआर कहने का।
- हो सकता है पहली ग़ज़ल के शेर कहने में हफ़्ता भर या और ज्यादह समय भी लग जाये। लगने दें, जल्दी न करें, बह्र रदीफ़ काफिया दिमाग़ में लिये गुनगुनाते रहें-गुनगुनाते रहें। दिन में कितनी ही बार आपके मन में कई विचार आयेंगे उन्हें शेर के रूप में कहने का प्रयास करें। कहते रहें, लिखते रहें। इसी तरह ग़ज़ल का पहला रूप पूरा होगा।
- ग़ज़ल के रूप का फुर्सत में परीक्षण करें और हर शेर को देखें कि उसे और बेहतर कैसे किया जा सकता है।
- जब आप किसी शेर के प्रति आश्वस्त हो जायें तो तक्तीअ करके देखलें कि वह बह्र से बाहर तो नहीं हो रहा है।
- धीरे-धीरे आपको ग़ज़ल इस लायक हो जायेगी कि उसपर किसी अनुभवी ग़ज़लकार की सलाह ले सकें, निसस्ंकोच लें।
- यह कभी न भूलें कि ग़ज़ल कहना एक सतत् अभ्यास है, अभ्यास करते रहें।
प्राप्त ग़ज़ल की बात:
जो ग़ज़ल प्राप्त हुई है वह इस प्रकार है:
2-1
यूँ तो चॉंद में इतने दाग हैं, फिर एक दाग और सही
खूब लगे इलज़ाम इश्क पर मेरे, फिर एक इलज़ाम और सही
2-2
हर जाम का हर याद से हिसाब लूँ, हर अश्क का हर शाम से
तेरी याद गर ये शराब भुलाये, तो फिर एक जाम और सही
2-3
हर साँस पे तेरा नाम लिखा, जिंदगी तुझ पर फ़ना हुयी
खून-ऐ-जिगर जो झूठ है, तो ले मौत तेरे नाम और सही
2-4
सख्ती-कशाब-ऐ-इश्क से तुम खूब लड़े हो ‘शादाब’
अब जो जिस्त दुश्मन हुई,फिर एक इंतकाम और सही
प्रस्तुत ग़ज़ल, वर्तमान स्थिति में ग़ज़ल के रूप में बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है इसलिये सीखने वालों के लिये बहुत कुछ दे सकती है। प्रेषक का परिचय तो अभी मैं नहीं दे रहा हूँ लेकिन अगर उन्होंने ने चाहा तो परिचय भी दिया जायेगा। संभवतया: प्रेषक की यह पहली ग़ज़ल है और उन्हें किसी का मार्गदर्शन भी प्राप्त नहीं है इस विधा में।
इसमें सबसे पहले रदीफ़ पहचानना जरूरी है। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि प्रस्तुत ग़ज़ल मे रदीफ़ 'और सही' है जो एक शब्द समूह के रूप में अंत में पहले शेर में दोनों पंक्तियों में और अन्य आशआर की दूसरी पंक्ति में आ रहा है।
प्रस्तुत ग़ज़ल को यदि कच्चा रूप माना जाये तो इसमें (अभी नुक्ते की बात भूल जायें तो) काफिया बन रहा है 'आम' यानि जो श्ाब्द इसमें बतौर काफिया इस्तेमाल होंगे उनका आखिरी व्यंजन होगा 'म' और उस व्यंजन के पहले का स्वर होगा 'आ'। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस ग़ज़ल में बतौर काफिया इस्तेमाल होने योग्य शब्द होंगे - आम, काम, घाम, चाम, जाम, थाम, दाम, धाम, नाम आदि पर समाप्त होने वाले शब्द। ऐसे शब्द अकारादि क्रम में कहीं मार्जिन में लिख लें जिससे उपलब्ध काफिये ज्ञात रहें।
अब काफिया और रदीफ़ का मात्रिक क्रम देख लिया जाये जिससे बह्र निर्धारण में सहायता मिले।
प्रस्तुत ग़ज़ल में 'आम और सही' का मात्रिक क्रम है 212112 या 21222 । अब इस ग़ज़ल के लिये जो बह्र ली जा सकती हैं उनका निर्धारण आवश्यक होगा। बह्र एक मात्रिक क्रम होता है, इसलिये इस ग़ज़ल के लिये वही बह्र ली जा सकेंगी जिसके अंत में 212112 या 21222 का क्रम मिल सके। इस काफि़या रदीफ़ संयोजन में एक अच्छी गुँजाईश है कि 'आम' की तुक में 'और सही' का 'और' मिलकर 'आमौर सही' का प्रभाव दे रहा है (ऐसा लयात्मक संधि के कारण है) जिसके कारण 2222 में समाप्त होने वाली बह्र भी उपयुक्त रहेंगी। यह वह स्थिति है जहॉं नया शाइर अटक सकता है।
अगर मुफ़रद बह्रों को देखें तो बह्रे हजज में वर्तमान ग़ज़ल का हल है जो इस प्रकार है:
मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन या 1222, 1222, 1222, 1222
प्राप्त ग़ज़ल पहली नज़र में ही दिख रही है कि बह्र से बाहर है और इसकी बह्र निकालना संभव न होगा लेकिन फिर भी प्रयास कर देखते हैं कि इसके लिये संभावित बह्र क्या बनती है। इसके लिये प्राप्त अशआर की तक्तीअ करके देखते हैं:
पहला शेर है 2-1
यूँ |
तो |
चाँ |
द |
में |
इत |
ने |
दा |
ग |
है |
फिर |
एक |
दा |
ग |
औ |
रस |
ही |
|
|
2 |
2 |
2 |
1 |
2 |
2 |
2 |
2 |
1 |
2 |
2 |
2 |
2 |
1 |
2 |
2 |
2 |
|
|
खू |
बल |
गे |
इल |
ज़ा |
म |
इश् |
कप |
र |
मे |
रे |
फिर |
एक |
इल |
ज़ा |
म |
औ |
रस |
ही |
2 |
2 |
2 |
2 |
2 |
1 |
2 |
2 |
2 |
2 |
2 |
2 |
2 |
2 |
2 |
1 |
2 |
2 |
1 |
पहले ही शेर में देखें तो दो समस्यायें तो सीधे-सीधे सामने हैं। पहली तो यह कि अगर इसे मक्ते का शेर माना जाये तो पहली पंक्ति में 'आम' की तुक नहीं आ रही है, दूसरी यह कि दोनों पंक्तियों का मात्रिक वज़्न सीमा से बाहर है और अलग अलग है।
मुफ़रद बह्र में नये शाइर के लिये 8 रुक्न की बह्र को अलग रखें तो हर पंक्ति का कुल वज़्न 28 की सीमा में हो सकता है।
लयात्मक संधि को विचार में रखें तो वर्तमान रदीफ़ काफिये को लेकर इस ग़ज़ल में 'आमौर सही' 'दामौर सही' 'शामौर सही' का प्रभाव हर शेर में आयेगा ही अत: जो भी बह्र ली जाये उसके अंत में 2222 मिलना ही चाहिये जो कि जि़हाफ़ का उपयोग किये बिना संभव नहीं है। शुरुआत में ही जिहाफ़ की बात करना अनुचित लग रहा है इसलिये अभी लयात्मक संधि और जिहाफ़ की बात नहीं करते, इन्हें फिर देखेंगे।
लयात्मक संधि को विचार में न रखें तो वर्तमान रदीफ़ काफिये को लेकर इस ग़ज़ल में अरकान मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन, मफ़ाईलुन या 1222, 1222, 1222, 1222 ही हो सकते हैं तो स्वाभाविक है कि प्रत्येक पंक्ति का प्रथमाक्षर मात्रिक वज़्न 1 लिये हुए होना चाहिये।
यह तथाकथित ग़ज़ल एक चेतावनी है कि ग़ज़ल कहने के लिये पहले ग़ज़ल विधा का आधार ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है और रदीफ़, काफिया तथा बह्र के चयन में बहुत सावधानी की जरूरत होती है अन्यथा उस्तादों के लिये भी समस्या खड़ी हो जाती है कि अब इसका क्या करें। समस्या कठिन है सामने लेकिन प्राप्त तथाकथित ग़ज़ल को एक मुकम्म्ल ग़ज़ल में परिवर्तित किया जा सका तो यह एक और कदम होगा ग़ज़ल कहने का। अनुभवी शाइरों को अलिफ़-वस्ल की आदत होती है इसलिये इस रदीफ़ काफिये में उनके लिये कठिनाई ज्यादह है।
देखें एक अनघड़ ग़ज़ल को आप सबका सहयोग क्या रूप देता है। प्रयास अवश्य करें।
यह देखने के बाद कि 'और सही' का रदीफ़ तंग कर रहा है मैनें एक ग़ज़ल उदाहरणस्वरूप 'रास्ते की धूल' पर लगाई है। उसे आधार बना कर बहुत से नये विकल्प खुल जायेंगे ऐसा मेरा विश्वास है। उस ग़ज़ल में रदीफ़ में 'लग जाये' को 'लग जायें' में परिवर्तित करके शेर कहें, 'लग जाये' को 'हो जाये' या 'कर जाये' में परिवर्तित कर शेर कहें, 'लग जाये' को 'होता है', 'लगता है', 'होता था', 'लगता था', 'कहता है' या 'कहता था' करके शेर कहें। हॉं रदीफ़ के साथ 'म' में समाप्त होने वाले काफियों का चयन ध्यान से करें वरना व्याकरण गड़बड़ हो जायेगी।
तक्तीअ का खाका यह है:
म |
फ़ा |
ई |
लुन् |
म |
फ़ा |
ई |
लुन् |
म |
फ़ा |
ई |
लुन् |
म |
फ़ा |
ई |
लुन् |
1 |
2 |
2 |
2 |
1 |
2 |
2 |
2 |
1 |
2 |
2 |
2 |
1 |
2 |
2 |
2 |
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शेर को पढ़ते समय मफ़ा ई लुन्, मफ़ा ई लुन्, मफ़ा ई लुन्, मफ़ा ई लुन् के टुकड़ों में पढ़ें। मफ़ाईलुन एक साथ पढ़ने में एक गंभीर त्रुटि हो सकती है मफ़ाईलुन को मफ़ाइलुन पढ़ने की और सबकुछ गड़बड़ा जायेगा।
यह ग़ज़ल प्राप्त हुई है श्री संदेश दीक्षित से जिनका संक्षिप्त परिचय कुछ यूँ है:
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मथुरा (उत्तर प्रदेश) की पावन धरती से शुरू होकर राजस्थान से होते हुए, बेंगेलोर की दौड़ती भागती जिंदगी में समाये संदेश दीक्षित पेशे से एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में शोध एवें विकास इंजीनियर हैं। कविता लिखने का शौक है लेकिन उस से कही ज्यादा पढने का। कविता लिखने के साथ साथ ज्योतिष,फोटोग्राफी और घूमना आदतों में शुमार है। कविता हिंदी के प्रति प्रेम से शुरू हुई, सिर्फ अपने लिए लिखते हैं लेकिन हर कवि की भांति चाह कि लोग इनकी कविता पढ़ें और मार्गदर्शन दें। इसी प्रयोजन के लिए आप सबके सामने उपस्थित हैं। आपके विचार इनकी प्रेरणा बनें ऐसी कामना है। |