Wednesday, April 28, 2010

हरकीरत 'हीर' की ग़ज़ल पर चर्चा-समापन

पिछली पोस्‍ट पर दी गयी ग़ज़ल पर हुई चर्चा के उपरान्‍त हरकीरत 'हीर' जी ने अपनी ग़ज़ल का जो अंतिम रूप दिया है वह उनसे प्राप्‍त हुआ है। ग़ज़ल पर सबने अपनी अपनी बात रखी लेकिन ग़ज़ल पर आखिरी निर्णय स्‍वाभाविक है कि उसीका रहना चाहिये जिसकी ग़ज़ल है। इसमें और प्रचलित इस्‍सलाह व्‍यवस्‍था में एक अंतर स्‍पष्‍ट है कि इस व्‍यवस्‍था में ग़ज़लगो किसी उस्‍ताद विशेष से बॅधा नहीं है इसलिये उसके लिये इस्‍सलाह स्‍वीकार करना या न करना संकोच का विषय नहीं है।
हरकीरत 'हीर' से प्राप्‍त अंतिम रूप निम्‍नानुसार है:
१-१ मतला
कभी खुद मान जाते हैं कभी खुद रूठ जाते हैं
अदा से नाज़ से वो दिल हमारा लूट जाते हैं
१-२
नज़र जो मुन्तज़िर होती हम भी लौट ही आते
घरौंदे ये उम्मीदों के, भला क्यूँ टूट जाते हैं ..?
१-३
शजर हम ने लगाए तो, वो अक्सर सूख जाते हैं
जहाँ हमने मुहब्बत की शहर ही छूट जाते हैं
१-४
जफा देखी वफा देखी जहां की हर अदा देखी
छुपा चहरे नकाबों में चमन वो लूट जाते हैं
१-५
वो कश्ती हूँ बिखरती जो रही बेबस, हवाओं से
बहाना था वगरना दिल कहाँ यूँ टूट जाते हैं
१-६
सदा जो मुस्कुरा कर हैं, कभी देते सनम मुझको
इशारों ही इशारों में, मिरा दिल लूट जाते हैं
१-७
वो जब नज़दीक होते हैं, दिले-मुज़तर धड़कता है
जुबां खामोश रहती है तअश्शुक़ फूट जाते हैं
१-८
घरौंदे साहिलों पर तुम बना लो शौक से लेकिन
बने हों रेत से जो घर, वो अक्सर टूट जाते हैं
१-९ मक्ता
चलो बज़्मे-सुखन में हो गया ये मरतबा अपना
तेरे अश’आर भी अब ’हीर’ महफ़िल लूट जाते हैं
अब अगली पोस्‍ट सोमवार दिनांक 3 मई का लगेगी जिसमें मेरी कोशिश है कि ग़ज़ल क्‍या है इस विषय पर एक संक्ष्प्ति पाठ भी दिया जा सके। इस पाठ की आवश्‍यकता इसलिये पड़ी कि जो ग़ज़ल प्राप्‍त हुई है वह अपने आप में एक उदाहरण है कि ग़ज़ल का प्रारंभिक ज्ञान प्राप्‍त किये बिना भी ग़ज़ल कहने का साहस कुछ लोग करते हैं और ऐसे में क्‍या होता है।

Thursday, April 22, 2010

हरकीरत 'हीर' की ग़ज़ल पर चर्चा

यह ब्‍लॉग जब सुरक्षित किया था, तब ऐसा अनुमान नहीं था कि ब्‍लॉग को ईमानदारी से कायम रखना सरल काम नहीं, फिर भी इसके रूप में अपने लिये एक काम निर्धारित कर लिया था, वह आज प्रारंभ हो रहा है।

इंटरनैट का मायाजाल बड़ा विचित्र है, एक सम्‍मोहक शक्ति लिये हुए, बिल्‍कुल भँवर की तरह जो पहले आकर्षित करती है और फिर अपनी गहराईयों में ले जाती है, ऐसी गहराईयों में जहॉं इंसान समय-संतुलन खो बैठता है। बस इसी समय-संतुलन की समस्‍या मुझे अब तक इस ब्‍लॉग को आरंभ करने से रोके हुए थी। बीच में एक अच्‍छा प्रस्‍ताव आया वीनस केसरी की ओर से 'आईये एक शेर कहें' के नाम से सीमित दायरे के एक ब्‍लॉग का जो इसी समय-संतुलन के भंवर-जाल में खोकर रह गया।

कदम-दर-कदम की परिकल्‍पना मुख्‍यत: इस विचार पर केन्द्रित रही कि इंटरनैट पर ग़ज़ल कहने संबंधी आधार ज्ञान बड़ी मात्रा में उपलब्‍ध है और सहज पहुँच के कारण ग़ज़ल कहने का शौक बढ़ने की पूरी-पूरी संभावना है लेकिन अधिकॉंश सीखने वाले; विशेषकर वे जो आधार ज्ञान रखते हैं लेकिन ग़ज़लगोई के लिये आवश्‍यक परिपक्‍वता प्राप्‍त करने के लिये; विधिवत् क्रमानुसार पाठ पढ़ने के स्‍थान पर कुछ कहकर उसपर टिप्‍पणियों के माध्‍यम से सीखने के इच्‍छुक हैं। सोचा कि क्‍यूँ न जो कहा उसे पोस्‍ट कर उसपर चर्चा आमंत्रित की जाये और चर्चा के माध्‍यम से सीखते हुए अपनी ग़ज़ल को ऐसा रूप दिया जाये कि वह पूर्ण ग़ज़ल मानी जा सके।

स्‍वाभाविक है कि चर्चा होगी तो ऐसी टिप्‍पणियॉं भी आयेंगी जो क्षणिक रूप से आहत भी करें, लेकिन आहत होने के इस चरण से निकलना इस हद तक ज़रूरी होता है कि हमें अपने कहे को खारिज करना आ जाये। जिस दिन खुद के कहे को खारिज करना आ गया, उसी दिन कहन की परिपक्‍वता की दिशा में शाइर कदम-दर-कदम बढ़ने लगता है और अगर खुद को खारिज करना नहीं आया तो मेरा मानना है कि कहन ठहर जाती है। कदम-दर-कदम बढ़ते हुए अगर कुछ शाइर अपनी मज़बूत पहचान बना सके तो मेरी समझ में मेरा प्रयास सफल हो जायेगा।

आरंभ में इस ब्‍लॉग पर केवल वही ग़ज़लें चर्चा के लिये लगाई जायेंगी जो स्‍वत: प्रेरणा से भेजी जायेंगी। जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे अन्‍य विकल्‍प भी खुलते जायेंगे।

ग़ज़ल भेजने के लिये कोई बंधन नहीं है, हॉं ग़ज़ल ई-मेल के माध्‍यम से भेजी जा सकती हैं और टिप्‍पणी के रूप में भी। स्‍वाभाविक है कि बहुत सी ग़ज़लों पर एक साथ चर्चा करना कठिन होगा इसलिये प्रत्‍येक सप्‍ताह एक ही ग़ज़ल पर चर्चा आयोजित हो सकेगी। ग़ज़ल के साथ शाइर अपना नाम प्रकाशित करना चाहते हैं या नहीं यह उनका निजि विषय रहेगा अत: इस विषय में कृपया ग़ज़ल भेजते समय ही इंगित करदें।

आप मुझसे सहमत होंगे कि टिप्‍पणियों में संयत भाषा का उपयोग जरूरी होता है अन्‍यथा कभी-कभी भावनायें आहत हो जाती हैं और उनपर कोई मरहम काम नहीं करती। स्‍वाभाविक है कि ऐसी टिप्‍पणियों का कोई महत्‍व न होगा जिनमें अशआर के तकनीकि व कहन पक्ष पर कुछ न कहा गया हो।

पहली ग़ज़ल हरकीरत 'हीर' जी से प्राप्‍त हुई है इसे ग़ज़ल के रूप में स्‍वीकार करने में क्‍या समस्‍याऍं हैं इस पर चर्चा के लिये प्रस्‍तुत है। कृपया टिप्‍पणी देते समय शेर के पहले लिखा क्रमांक अवश्‍य दे दें जो ग़ज़ल क्रमांक-शेर क्रमांक है:

1-1
कभी वो मुस्कुराते हैं ,कभी वो रूठ जाते हैं
बड़े ज़ालिम हैं दिल वाले तसव्वुर लूट जाते हैं

1-2
नज़र जो मुन्तजिर होती कभी हम लौट ही आते
परिंदों के घरौंदों से , क्यूँ घर टूट जाते हैं...?

1-3
लगाये जो शजर हमने वो अक्सर सूख जाते हैं
जहाँ हमने मुहब्बत की शहर वो छूट जाते हैं

1-4
जफ़ा देखी वफ़ा देखी जहाँ की हर अदा देखी
छुपा चहरे नकाबों में , हया वो लूट जाते हैं

1-5
वो कश्ती हूँ बिखरती जो रही बेबस हवाओं से
बहाना था वगरना दिल कहाँ यूँ टूट जाते हैं

1-6
कभी जो मुस्कुरा के वो सदायें मुझको देते हैं
इशारों ही इशारों में , मेरा दिल लूट जाते हैं

1-7
बड़े मदहोश लम्हे थे सनम जब सामने आये
जुबां खामोश रहती है तअश्शुक़ फूट जाते हैं

1-8
घरौंदे साहिलों पर तुम बना लो शौक से लेकिन
बने हों रेत से जो घर , वो अक्सर टूट जाते हैं

1-9
कभी मत्ले पे होती वाह कभी मक्ता लुभाता है
अश'आर तेरे यूँ 'हीर' महफ़िल लूट जाते हैं ।